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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भारत ही में अवतार क्यों?
बुद्धिमानों को विदित है कि परिमित प्रज्ञा-क्रिया-शक्ति सम्पन्न मनुष्यों के लौकिक हिताहित का विवेचन कुछ अंशों में भले सम्भव हो, परन्तु अलौकिक, पारलौकिक सुखों एवं सुख-साधनों के विज्ञान की ओर से वे सर्वथा अन्धे ही हैं। अर्थ और कामविषयक उद्योंगों और नीतियों में देशकाल-भेद से निःसीम परिवर्तन संभव हो सकते हैं। अतः उन विषयों में नीति-निर्धारण करना मानव के लिये असम्भव नहीं है। परन्तु सर्वज्ञकल्प प्रजापति, वृहस्पति, शुक्र, मनु आदि नीतिज्ञों की नीति को आधार मानकर तदनुसार परिवर्तन या अनुवर्त्तन अधिक सुविधाजनक एवं निरुपप्लव होता है। किन-किन चेष्टाओं से परलोक में क्या दुःख और क्या सुख होगा, इसका परिज्ञान अल्पज्ञ जीव के लिये नितान्त असम्भव है। देश, काल, परिस्थिति के अनुसार धर्माधर्म का परिवर्तन निःसीम नहीं है। वस्तुतः अव्यवस्थित परिवर्तन नीति में भी असंभव है, फिर धर्म में तो वह कथमपि संभव ही नहीं है। कहीं भी लक्षण के अनुसार लक्ष्य का निर्णय हुआ करता है। प्रत्यक्ष विषय में जहाँ लक्षण-निर्धारण करना होता है, वहाँ अव्याप्ति, अतिव्याप्ति, असंभव दोषों से रहित ही लक्षण हुआ करता है। परन्तु जो लक्ष्य अप्रत्यक्ष है, उसका निर्णय लक्षणों के ही अनुसार हुआ करता है। लक्षण (सूत्र) जहाँ नहीं घटता वह लक्ष्य ही अशुद्ध समझा जाता है। परन्तु आज प्राणियों के आचरण के अनुसार धर्माधर्म का निर्णय किया जाने लगा है। आजकल के लोगों में वस्तु स्थिति की अपेक्षा कर परिवर्तन के अनुवर्तन करने का स्वभाव हो गया है। धर्म के लक्षणानुसार धर्म का निर्णय करना एक बात है, परिस्थिति और आचरण देखकर तदनुकूल धर्म की परिभाषा बनाना दूसरी बात है। गीता की दृष्टि में यत्किचिंत् हलचल या चेष्टा धर्म नहीं है। कारण, वह तो बिना विधान किये भी प्रकृतिज्ञ गुणों की प्रेरणा से स्वयं ही होगा। अतः “कुरु कर्मेव” इत्यादि वाक्यों में विहित कर्म वही है, जो रागप्राप्त नहीं है, किन्तु शास्त्र से ही जिनकी कर्तव्यता विदित होती है। इसीलिये कहा गया है कि कार्य-अकार्य की व्यवस्था में एक शास्त्र ही प्रमाण है। अतः शास्त्रविधान को जानकर ही कर्म करे “ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्त्तुमिहार्हसि।” यह शास्त्र भी अव्यवस्थित, समय-समय के समाज के निर्धारित यत्किचिंत् नियम नहीं है, क्योंकि समयानुसार कभी अध्यात्मवादियों का ही दल विस्तृत हो सकता है। बहुत से व्यक्तियों का ही समाज बन जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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