भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
निराकार से साकार
समान सतावाले भाव-अभाव का ही विरोध होता है, विषम सत्तावाले भाव-अभाव का विरोध नहीं होता, अत: वे दोनों एक जगह भी रह सकते हैं। इसीलिये एक शुक्तिका में व्यावहारिक सत्ता से रूप्य का अभाव और प्रातिभासिक सत्ता से रूप्य का भाव रहने में कोई भी विरोध नहीं है। इसी दृष्टि से परमात्मा में पारमार्थिक सत्ता से जन्माभाव दृष्टि से जन्म का भाव रहने में भी कोई आपत्ति नहीं हो सकती। इस-पर कहा जा सकता है कि दृष्टि-सृष्टिवाद की दृष्टि से अवतार कथमपि नहीं सिद्ध होता। परन्तु यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि दृष्टि-सृष्टिवाद में भी आकाशादि प्रपंच का सत्त्व है। कम-से-कम साकार ब्रह्म का उतना ही अस्तित्व तो मानना ही होगा। सर्वव्यापि विधुर परिभावितकामिनी-साक्षात्कार से कृष्ण-साक्षात्कार विलक्षण है। जब विधुरपरि-भावितकामिनी-साक्षात्कार की अपेक्षा कामिनी का साक्षात्कार विलक्षण है, फिर कृष्ण-साक्षात्कार विलक्षण क्यों नहीं? सारांश यह कि किसी भी दृष्टि से व्यवहार का उपपादन करना पड़ता है। “व्याघातावधिराशंका” लोकव्याघात ही शंका की अवधि है। प्रपंच के स्वरूप निषेध-पक्ष में भी श्रवण, मनन, साक्षात्कार आदि चीजों का उपपादन करना पड़ता है। फिर जब उन वस्तुओं का उपपादन करना है, तब तो अवतार का उपपादन ठीक ही है। फिर ‘दृष्टि सृष्टिवाद में अवतार नहीं बनता’ यह कथन ही व्यर्थ है। जब उस पक्ष में आकाशादि प्रपंच ही नहीं बनता, तब अवतार नहीं बनता, यह विशेषोक्ति व्यर्थ है। यदि किसी दृष्टि से जीव, जगत, ईश्वर ही न बनता हो, तो उस पक्ष में अवतार भी न बने तो कोई दोष नहीं है। विचार तो ईश्वर के अवतार का है, जो ईश्वर ही नहीं सिद्ध करता, वह अवतार क्यों मानेगा? वस्तुतः “बिभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रहरिष्यति” (अल्पश्रुत से वेद डरता है कि मुझ पर प्रहार करेगा) शास्त्रों के भिन्न-भिन्न वादों का आचार्य-परम्परा से बिना अध्ययन किये उनका अभिप्राय नहीं लगता। प्राणी शास्त्र-वचनों से ही अपना अनर्थ कर बैठना है। कुछ लोग- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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