भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
निराकार से साकार
इस ‘गीता’ के मूल वचन से अज, अव्यय ईश्वर का माया के द्वारा जन्म सिद्ध होता है और मधुसूदन भी- इस तरह श्रीकृष्ण के विषय में अपना अभिप्राय प्रकट कर रहे हैं। जहाँ भी कहीं आचाय्यो ने भगवान के स्वरूप का वर्णन किया है, वहाँ यही कहा है कि भगवान वस्तुतः अज, सर्वंभूतान्तरात्मा होते हुए भी अपनी दिव्यलीला-शक्ति से देहवान् होकर प्रस्फुरित होते हैं। जैसे घृत वर्त्तिका के सम्बन्ध से निराकार अग्नि ही दाहकत्व, प्रकाशकत्व विशिष्ट दीपशिखा के रूप में अभिव्यक्त होता है, वैसे ही निराकार भगवान लीलाशक्ति के सम्बन्ध से साकार होकर प्रतीत होते हैं। जैसे घृत-वर्त्तिकादि तटस्थ रहकर ही दीपशिखा का कारण बनते हैं, दीपशिखा के भीतर, बाहर शुद्ध अग्नि ही है, वैसे ही लीलाशक्ति तटस्थ ही रहती है, भगवान के स्वरूप में भीतर, बाहर शुद्ध चिदानन्द ही है, किंवा जैसे निर्मल जल ही बर्फ के रूप में शैत्य-सम्बन्ध से प्रकट होता है, वैसे ही अचिन्त्य, विशुद्ध सत्य के सम्बन्ध से सच्चिदानन्द ब्रह्म साकार हो जाता है। जिस तरह सच्चिदानन्द ब्रह्म ही अनिर्वचनीय माया के आध्यासिक सम्बन्ध से नाम-रूप-क्रियात्मक प्रपंचरूप से प्रकट होता है, उसी तरह विशुद्ध सत्त्व के आध्यासिक सम्बन्ध से ब्रह्म साकार देहधारी हो जाता है। कम-से-कम आकाशादि प्रपंच के समान तो अवश्य ही साकार ब्रह्म का अस्तित्व कट्टर से कट्टर वेदान्ती को मान ही लेना चाहिये। वैसे तो बाध्यत्व, गिथ्यात्व, अबाध्यत्व, सत्यत्व को लेकर चलें, तो शुक्ति-रूप्य आदि की अपेक्षा अबाध्य घटादि कार्यों का सत्यत्व है, मृत्तिका की अपेक्षा घटादि में बाध्यता होने से मिथ्यात्व है, तदपेक्षया मृत्तिका में अबाध्यत्व होने से सत्यत्व है। इसी तरह अपर जल, तेज, वायु, आकाश आदि में कार्य की अपेक्षा कारण में सत्यत्व और कारण की अपेक्षा कार्य में मिथ्यात्व होता है। इस दृष्टि से पारमार्थिक सत्तापेक्षया किंचिन्न्यूनसत्ताकत्व ही उस दिव्य शक्ति का व्यावहारि कत्व है। तथाच ब्रह्म में पारमार्थिक दृष्टि से अजायमानता रहने पर भी व्यावहारिक दृष्टि से जायमानता हो सकती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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