भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
पीठ-रहस्य
45- मज्जा के पतनस्थान में माहेन्द्रपीठ हुआ, वह ‘वकार’ के प्रादुर्भाव का स्थान है, जहाँ शाक्त मन्त्रों के जप से अवश्य सिद्धि हेाती है। अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋृ, लृ, ल§, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः। क, ख, ग, घ, ङ,। च, छ, ज, झ, ञ। ट, ठ, ड, ढ, ण। त, थ, द, ध, न। प, फ, ब, भ, म। य, र, ल, व, श, ष, स, ह, ळ, क्ष, यही 51 वर्णों की वर्णमाला है। यहाँ अन्तकाल ‘ळ’ रूप से उच्चरित होता है तथा अन्तिम ‘क्ष’ माला का सुमेरु है। इसी माला के आधार पर सती के भिन्न-भिन्न अंगों का पात हुआ है। एतावता इतनी भूमि वर्ण-समाम्नायस्वरूप ही है। भिन्न-भिन्न वर्णों की शक्तियाँ और देवता भिन्न हैं। इसीलिये उन-उन वर्णों, पीठों, शक्तियों एवं देवताओं का परस्पर सम्बन्ध है। जिसके ज्ञान और अनुष्ठान से साधक को शीघ्र ही सिद्धि होती है। माया द्वारा ही परब्रह्म से विश्व की सृष्टि होती है। सृष्टि हो जाने पर भी उसके विस्तार की आशा तब तक नहीं होती, जब तक चेतन पुरुष की उसमें आसक्ति न हो। अतएव, सृष्टि-विस्तार के लिये काम की उत्पत्ति हुई। रजःसत्त्व के सम्बन्ध में द्वैतसृष्टि का विस्तार होता है, परन्तु तम कारणरूप है, वहाँ द्वैतदर्शन की कमी से मोह की कमी होती है। सत्त्वमय सूक्ष्म-कार्यरूप विष्णु एवं रजोमय स्थूलकार्य रूप ब्रह्मा के मोहित हो जाने पर भी कारणात्मा शिव मोहित नहीं होते। परन्तु जब तक कारण में भी मोह नहीं, तब तक सृष्टि की पूर्ण स्थिति नहीं होती। इसीलिये स्थूल-सूक्ष्म कार्य चैतन्यों की ऐसी रुचि हुई कि कारण चैतन्य भी मोहित हो। परन्तु वह अघटित घटनापटीयसी महामाया के ही वश की बात है। इसीलिये सबने उसी की आराधना की। देवी प्रसन्न हुई, वह भी अपने पति को स्वाधीन करना चाहती है। स्त्रीधीनभर्तृ का स्त्री ही परम सौभाग्यशालिनी होती है। वही हुआ, महामाया ने शिव को स्वाधीन कर लिया, फिर भी पिता द्वारा पति का अपमान होने पर उसने उस पिता से सम्बन्धित शरीर को त्याग देना उचित समझा। महाशक्ति का शरीर उसका लीलाविग्रह ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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