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31- वाम ऊरु के पतनस्थान में कालेश्वरपीठ हुआ, -णकार’ की उत्पत्ति हुई वहाँ आयुवृद्धिकारक मृत्युंजयादि मन्त्र सिद्ध होते हैं।
32- दक्षिण जानु के पतनस्थान में जयन्तीपीठ हेाकर ‘तकार’ की उत्पत्ति हुई वहाँ धनुर्वेद की सिद्धि अवश्य होती है।
33- वाम जानु जहाँ पतित हुआ, वहाँ उज्जयिनीपीठ हुआ ‘थकार’ प्रकट हुआ, वहाँ कवचमन्त्रों की सिद्धि होकर रक्षण होता है। अतः उसका नाम ‘अवन्ती’ है।
34- दक्षिण जंघा के पतनस्थल में योगिनी-पीठ हुआ, ‘दकार’ की उत्पत्ति हुई वहाँ कौलिक मन्त्रों की सिद्धि होती है।
35- वामजंघा के पतनस्थान पर क्षीरिका-पीठ होकर ‘धकार’ का प्रादुर्भाव हुआ। वहाँ वैतालिक तथा शाबर मन्त्र सिद्ध होते हैं।
36- दक्षिण गुल्फ के पतनस्थान में हस्तिनापुर-पीठ हुआ, ‘नकार’ की उत्पत्ति हुई। वहीं नूपुर का पतन होने से नूपुरार्णवसंज्ञक उपपीठ हुआ, वहाँ सूर्य-मन्त्रों की सिद्धि होती है।
37- वामगुल्फ के पतनस्थल में उड्डीशपीठ होकर ‘पकार’ का प्रादुर्भाव हुआ। उड्डीशाख्य महातन्त्र वहाँ सिद्ध होता है। जहाँ दूसरे नूपुर का पतन हुआ, वहाँ डामर उपपीठ हुआ।
38- देहरस(अस्थि) के पतनस्थान में प्रयागपीठ हुआ, ‘फकार’ की उत्पत्ति हुई, वहाँ मृत्तिका श्वेतवर्ण की दृष्टिगोचर होती है। वहाँ अन्याय अस्थियों का पतन होने से अनेक उपपीठों का प्रादुर्भाव हुआ। गंगा के पूर्व में बगलोपपीठ एवं उत्तर में चामुण्डादि उपपीठ, गंगा-यमुना के मध्य में राज-राजेश्वरीसंज्ञक, यमुना के दक्षिण तट पर भुवनेशी नामक उपपीठ हुआ। इसीलिये प्रयाग तीर्थंराज एवं पीठराज कहा गया है।
39- दक्षिण पृश्नि के पतन-स्थान में षष्ठीशपीठ हुआ एवं ‘बकार’ का प्रादुर्भाव हुआ। यहाँ पादुका मन्त्र की सिद्धि होती है।
40- वामपृश्नि का जहाँ पात हुआ, वहाँ मायापुरपीठ हुआ, ‘भकार’ की उत्पत्ति हुई, समस्त मायाओं की सिद्धि वहाँ होती है
41- रक्त के पतनस्थान में मलयपीठ हुआ एवं ‘मकार’ की उत्पत्ति हुई। रक्ताम्बररादि बौद्धों के मन्त्र यहाँ सिद्ध होते कहैं।
42- पित्त की पतनभूमि पर श्रीशैल पीठ हुआ तथा ‘यकार’ का प्रादुर्भाव हुआ। विशेषतः वैष्णव मन्त्र यहाँ सिद्ध होते हैं।
43- मेद के पतनस्थान में हिमालय पर मेरुपीठ हुआ एवं ‘र’ की उत्पत्ति हुई। स्वर्णाकर्षंण भैरव की सिद्धि वहाँ होती है।
44- जहाँ जिह्वाग्र का पतन हुआ, वहाँ गिरिपीठ हुआ तथा ‘लकार’ की उत्पत्ति हुई। यहाँ जप करने से वाकसिद्धि होती है।
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