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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
माँ के श्री चरणों में
निर्मल दर्पण प्रतिभासित नगर के तुल्य ही शुद्ध बोध में प्रपंच प्रतिभान है। जैसे घोर तापमयी मरु-मरीचिका में अनन्त जलराशि की कल्पना होती है, वैसे ही परम शीतल, शान्त, स्वच्छ, अखण्ड संविद् में भीषण भवाम्भोधि कल्पित है। जैसे स्वप्नों, गन्धर्वों एवं संकल्पों के मायामय मिथ्या नगरों में कुड्यादि की मिथ्या प्रतीति होती है, वैसे ही ब्रह्म में आडम्बरपूर्ण दीर्घ जगद्विभ्रम है। स्वप्न नगर के आकाश और कुड्य, काष्ठ, पाषाणादि में कोई भी अन्तर नहीं, क्योंकि सब केवल संकल्प ही है। आब्रह्मस्तम्ब प्रपंच चित्प्रकाश में ही प्रतिभासित होने के कारण सब चिद्रूप ही है। असंख्य ब्रह्माण्ड उसी ब्रह्माम्बुधि के नगण्य बुद्बुद है। जाग्रदादि जगत प्रत्ययों का अभाव होने से सर्वप्रत्ययों का भासक नित्य विज्ञान-रूप प्रत्यय स्फुटरूप से व्यक्त होता है अर्थात जागतिक विविध वृत्तियों के रुद्ध होने पर ही निर्वृत्तिक चित पर नित्य अखण्डबोधरूप ब्रह्म की अभिव्यक्ति होती है। वह ‘नास्ति’ बुद्धि का गोचर नहीं है, अतः असत् नहीं है। ‘अस्ति’ बुद्धि का गोचर नहीं है, अतः सत् भी नहीं, फिर भी त्रिकालाबाध्य सत्स्वरूप है। स्थूल-सूक्ष्म, कार्य-कारण, मूर्त्त-अमूर्त्त से विलक्षण होने से भी उसे सत् एवं असत् से भिन्न जैसे क्षुधातुर प्राणी स्वप्न में भोजन करके तृप्ति का अनुभव करता है, स्वप्न में स्वमरण का अनुभव करता है, वही अनन्त आत्मसत्ता, जो स्वयं किसी से भी आवृत नहीं हो सकती, परन्तु सम्पूर्ण दृश्य उसी से आवृत है। वैसे ही द्रष्टा के बिना दृश्य सिद्धि नहीं होती और दृश्य के बिना द्रष्टा भी सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि अखण्ड बोध के दृश्य-सम्पर्क से ही द्रष्टुतत्त्व का व्यवहार होता है। द्रष्टा चिद्रूप होने से दृश्य निर्माण में अवश्य समर्थ है। किन्तु दृश्य स्वयं जड़ है, अतः वह समर्थ नहीं है। चित् ही असत् अर्थ का निर्माण करता है। बोध होते ही दृश्य गलित हो जाता है। बोध के द्वारा विद्वान् प्रमाता, प्रमाण, प्रमेय-सभी को निगल जाता है, जैसे सुवर्ण में कटक-कुण्डलादि विलीन हो जाते हैं, वैसे ही। जैसे जल से भिन्न द्रवता नहीं है, जैसे काष्ठ में काष्ठ-पुत्रिकाएँ एवं बीज में अंकुर, नाल, स्कन्ध, शाखा, उपशाखा, काष्ठ एवं बीज से अभिन्न ही होते हैं। चिन्मात्र, बोधस्वरूप ब्रह्मात्मा में ही चैत्य दृश्य-प्रपंच उद्भूत होता है। परन्तु वह भी चिन्मात्र ही है। फल एवं बीज की एक ही सत्ता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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