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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
माँ के श्री चरणों में
विक्रम, धन, मित्र सुहृदों से इस सम्बन्ध में कोई लाभ नहीं होता। किन्तु ज्ञान, दम, त्याग एवं अप्रमाद से युक्त होकर सर्वप्राणियों को अभय देकर जो पद प्राप्त किया जा सकता है, वह सहस्रों ऋतुओं एवं उपवास से भी प्राप्त नहीं होता। पुत्र, मित्र, वित्त, कलत्र, किसी के भी विप्रयोंग में जो वेदना होती है, उसे कोई अनुभवी ही समझता है। किसी के भी विप्रयोग में जो वेदना होती है, उसे कोई अनुभवी ही समझता है। तज्जन्य शोक से प्रत्येक गात्र तथा रोम-रोम में दाह उत्पन्न होता है। प्रज्ञा भी अभिभूत हो जाती है।
विष एवं अग्नि के तुल्य प्रियवियोगदुःखं अतिभीषण होता है। इससे तप्त प्राणी मरण को ही श्रेष्ठ समझता है-
भावि का भाव होकर ही रहता है। यदि उसका भी प्रतिकार हो सकता तो फिर नल, राम एवं युधिष्ठिर को सन्तप्त न होना पड़ता। इसीलिये महापुरुषों ने कहा है-
जो नहीं होने वाला है वह नहीं होगा। जो होने वाला है, वह होकर ही रहेगा, यही विचार चिन्ताविष का औषध है। फिर जो हमारी वस्तु है, वह दूसरे को नहीं हो मिलेगी- ‘‘यदस्मदीयं न हि तत्परेषाम्।।’’ फिर भी हे विश्वप्रसवित्री! हे सकरुणे! हे दीनरक्षामणे! बिना तुम्हारी कृपादृष्टि की वृष्टि हुए उपाय, सब साधन व्यर्थ हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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