भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
इष्टदेव की उपासना
अग्नि का दर्शन होते ही वह मृग ऐसी स्नेहभरी दृष्टि से अग्नि को देखने लगा, जैसे अग्नि के साथ उसका कोई बहुत पुराना सम्बन्ध हो। अनन्तर वसिष्ठ जी की कृपा से उसका कल्याण हुआ। अस्तु, प्रकृत में कहना यही है स्वनदर्शन तथा माहात्म्यश्रवण आदि से चित्त का आकर्षण देखकर अपने इष्टदेव का निर्णय करना चाहिए। यह स्पष्ट है कि अनेक जन्म के साधनों से प्राणी की उपासना में उन्नति होती है। जन्म-जन्म में मार्ग-परिवर्तन करने से यथेष्ट लाभ सम्भव नहीं है। अतः पूर्व की उपासना के संस्कार का ज्ञान करके उसी उपासना में प्रवृत्त होना चाहिए। पितृ-पितामह-परम्परा की उपासनाओं के अनुसार ही प्राणी को उपासना करनी चाहिए। वर्तमान जन्म की सत्प्रवृत्ति और दुष्प्रवृत्ति में पिछले जन्मों के संस्कार भी अपेक्षित होते हैं। यदि किसी को दुर्दैववश, किसी ऐसे देश-काल में, ऐसे माता-पिता, गुरुजनों तथा ग्रन्थों का संसर्ग हुआ कि जिनसे दुराचार-दुर्विचार को ही उत्तेजना मिली, तो उस व्यक्ति के लिए दुःसंग और असद्विचार वाले शास्त्रों को छोड़कर सत्पुरुष-संग, सच्छास्त्र के अभ्यास एवं तदनुसार-सदाचार–सद्विचार के सम्पादन में बड़ी कठिनाई पड़ती है। जिसे पूर्व संस्कार के अनुसार शुद्ध विचार वाले देश-काल तथा माता-पिता गुरुजनों का संयोग प्राप्त हुआ और सच्छास्त्र ही अध्ययन करने को मिले, उसके लिए सदाचार-सद्विचार की वृद्धि में बड़ी सहायता मिलती है। इसीलिए प्रायः सन्मार्गस्थ सदाचारी को उसकी भावना और उपासना के अनुसार ही समीचीन देश-काल और माता-पिता तथा शास्त्रों का संसर्ग मिलता है। इसी बात की इंगना श्रीभगवान ने ‘‘शुचीनाम् श्रीमतां गेहे’’ ‘‘अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्’’, ‘पूर्वाभ्यासेन कौन्तेय ह्रियते ह्यवशोऽपि सः’’ इत्यादि वचनों से की है। इसीलिए यह बहुत सम्भव है कि हमारी उपासना के अनुकूल ही कुल में हमारा जन्म हुआ हो। अतः हमें माता-पिता, गुरुजनों के अनुसार ही उपासना करनी चाहिए। यों भी इस बात के समझने में सुगमता होगी कि जैसे कोई पुरुष किसी अपरिचित मार्ग से किसी अभीष्ठ देश में जा रहा हो, आगे चलकर उसे तीन मार्ग दिखाई दें और तीनों पर कुछ लोग चल रहे हों, प्रश्न करने पर सभी अपने मार्ग को ही निर्विघ्न बतलाते हों, साथ ही दूसरे मार्गों को नाना प्रकार के सिंह, व्याघ्र, सर्प, वृश्चिक, कण्टकाकीर्ण गर्तों से उपद्रुत बतलाते हों, ऐसी स्थिति में यदि जाना आवश्यक ही हो तो वह प्राणी किस मार्ग का अवलम्बन करेगा? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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