विषय सूची
भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
श्रीश्यामसुन्दर का अभिसार दो ही स्थान पर होता था - या तो श्रीवृषभानुनन्दिनी के यहाँ या चन्द्रावली के यहाँ। उन श्रीचन्द्रावली के दिव्य प्रासाद में श्रीकृष्ण एक बार पधारे। रसरीति के अनुसार परिरम्भबद्ध होकर वे श्रीचन्द्रावली के अंक में विराज रहे थे। पर श्रीवृषभानुनन्दिनी का अनुस्मरण होते ही श्रीचन्द्रावली के सौंदर्य, लावण्य, प्रणयपाश उन्हें भूल गये, श्रीराधोद्देश्यक कम्प, हर्ष, रोमांचादि होने लगा और वे ‘श्रीराधे श्रीराधे’ बरबस कहने लग पड़े। यह इनकी वही स्थिति हुई जो देवांगनाओं की अपने पतिदेवों के अंक में स्थिति रहते भी श्रीकृष्णदर्शन से हुई थी। वे श्रीचन्द्रावली की गोद में श्रीराधा के लिये विह्वल हो गये; जो माधुर्यामृतसिन्धु की लहर श्रीकृष्णंक में विराजमान होकर उठती थी, उसके लिये वे लालायित हो गये।
अर्थात् श्रीवृषभानुनन्दिनी के वसनांचल खेल से समुत्पन्न, अत: अपने को परमधन्य समझने वाला वायु भी जब कभी श्रीनन्दनन्दन के स्पर्श का विषय होता है, तो वे उतने मात्र से भी अपने को परम कृतार्थ मानते हैं, यह स्थिति उन मधुसूदन भगवान् की है, जिनकी प्राप्ति के लिये बड़े-बड़े योगीन्द्र मुनीन्द्र तरसते रहते हैं। वह तो दिशा भी वन्दनीय है जहाँ श्रीवृषभानुभूपतनया का चरण-संचार होता है। तात्पर्य यह है कि उन श्रीवृषभानुनन्दिनी के संग परम उमंग में श्रीश्यामसुन्दर इधर से निकले हैं, इन लताओं ने उन्हें देखा है, श्रीराधा-कृष्ण का सम्मिलन इनके सामने हुआ है, इसी से ये रोमांचित हो रही हैं, ये उनकी परम अन्तरंगा हैं, इन्हीं से पूछो-
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज