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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
इन सखियों की स्थिति बहुत ऊँची है, ये श्रीयुगलबिहारी की उपासना सख्यभाव से करती हैं। जो सुख इन परमप्रेष्ठ सखियों को प्राप्त है, उसके लिये श्रीबिहारीलाल भी लालायित रहते हैं। वे जानते हैं कि हम दोनों के समुदित आह्लाद-आनन्द का यथावत् अनुभव इन्हीं को होता है; अर्थात् श्रीश्यामसुन्दर को केवल श्रीगौरसुन्दरी के और उन्हें केवल श्रीश्यामसुन्दर के प्रणयसौख्य का अनुभव होता है, परन्तु ये सखियाँ दोनों के विभिन्न और समुदित लोकोत्तर, स्नेहसौख्य को प्राप्त करती हैं। लता पति स्थानीय वनस्पतियों से समाश्लिष्ट रहकर भी श्रीश्यामसुन्दर के मुख दर्शन से मुग्ध हैं, उन पर फूल बिखेरती हैं। लताओं की कौन कहे, देवांगनाएँ जो सौन्दर्य की सीमा गिनी जाती हैं, अपने परम विदग्ध पतिदेवों के अंक में विराजमान होकर भी गँवारे ग्वालबालों से श्रृंगारित श्रीनन्दनन्दन के मयूरचन्द्रिकाचित, वन्य कुसुमकल्पित कुण्डलाद्यलंकृत आनन पर सकृद्दर्शन से ही सदा के लिये बलिहार हो जाती हैं, उनकी नीवी शिथिल पड़ जाती है, अकस्मात् उत्पन्न रोमांच की तीव्रता से उनके केशपाश विशीर्ण हो जाते हैं और उनमें ग्रथित शत-शत कुसुम गुच्छ युगपत विकीण हो जाते हैं। दूसरी ओर श्रीवृषभानुनन्दिनी का वह सौन्दर्य-माधुर्य है जिसकी कमनीयता, लोकोत्तरता पर पूर्णतम पुरुषोत्तम परब्रह्म श्रीकृष्ण भगवान ने अपने को न्योछावर कर दिया। साधारण व्रजरमणी लक्ष्मी हैं, गोपीजन लक्ष्मीतम हैं। अतिशय में तमप् है। उनकी भी सिरमौर श्रीचन्द्रावली हैं, ये अनन्तानन्त गोपीयूथ की प्रभु हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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