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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
‘पाययन्त्यः शिशून्पयः’ आदि स्थलों में ‘शिशून्’ का अर्थ भतीजे आदि समझना चाहिये, अन्यथा पुत्रवती कान्ता के अभिसार से रसाभाव होगा। हाँ, तो इस प्रकार पहले यह गोपियाँ अपने-अपने वर्णादि धर्मों में व्यासक्त थीं, पीछे श्यामसुन्दर के वेणु-गीत पीयूष के प्रवाह में बह चलीं-
जैसे अयस्कान्त (चुम्बक) लौह का आकर्षण कर ले, वैसे ही अथवा उससे भी अधिक आकर्षण से वे श्रीश्यामसुन्दर के दर्शनार्थ सब कुछ छोड़कर दौड़ पडीं, आकर्षणशील श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द के द्वारा वे आकृष्ट हुईं, यह आकर्षण का महत्त्व है। अथवा वेणुगीत पीयूष-प्रवाह में उनका मन बह चला, जैसे भाद्रपद मास के गंगा प्रवाह में नाव बह चले, मल्लाह रोकना भी चाहे पर रुके नहीं, वैसे ही वे वेणुगीत प्रवाह में बह चलीं। उनके मन में एक वेगवान प्रेम का ही प्रवाह था, उसमें वर्णधर्म के सेतुबन्ध या बन्धन लगे थे। परन्तु जब वेणुगीत पीयूष का महाप्रवाह कर्ण कुहरों द्वारा उनके अन्तर में प्रविष्ट हुआ, तब उससे वे बाँध तोड़-फोड़ डाले गये, उसमें उनकी वह देह की नाव बह चली, मन-मल्लाह उसे न रोक सका और किनारे के लोग ‘रोको-रोको’ की पुकार करते ही रह गये। हठात् यह कार्य हो गया। अनंग का उक्त पद्य में अंगी अर्थात् श्रृंगार अर्थ है, श्रृंगार अंगी रस है, बाकी आठ अंग रस। कविजन शुद्ध श्रृंगार रस में परोढा को महत्त्व नहीं देते, परन्तु यह कृष्ण-कथातिरिक्त स्थल की बात है- “नेष्टा यदंगिनि रसे कविभिः परोढा, तद्गोकुलाम्बुजदृशां कुलमन्तरेण।” इस तरह अंगी बढ़ा और उसके वेग में गोपीजनों के देह की नौका भी बह चली, मन या बुद्धिरूप मल्लाह भी उसी में कूद पड़ा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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