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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
व्रजवधुओं ने सोचा- यह अकेली है, उसका पति हरिण उसके साथ नहीं है; अतः यह सिद्ध है कि यह वियोगिनी है, प्रिय-वियोग-वेदना से सुपरिचित है, अवश्य ही यह हम वियोगिनियों की बात सुनेगी और प्यारे श्यामसुन्दर का मार्ग बतायेगी। वे उससे पूछती हैं-
‘हे हरिण पतिव्रते! क्या तुमने हमारे प्राणधन श्रीश्यामसुन्दर को देखा है? क्या वे अपनी परम प्रेयसी के साथ इधर पधारे हैं?’ अब तक गोपांगनाओं द्वारा यह नहीं सूचित हुआ कि श्रीकृष्ण भगवान् के साथ और भी कोई है। अब यहाँ यह कहा गया कि ‘प्रियया उपगतः’ ‘अपनी प्रिया के साथ’ क्या उन श्रीकृष्ण को हे हरिणि! तुमने यहाँ कहीं देखा है? यह प्रिया कौन है? वही वृषभानुनन्दिनी रासेश्वरी श्रीराधा। यहीं से श्रीराधा की चर्चा चली। पूछती हैं- ‘क्या श्रीराधा-कृष्ण इधर पधारे हैं?’ परन्तु ‘श्रीमद्भागवत’ में यह नाम प्रत्यक्ष रूप से कहीं भी नहीं लिया गया, ऐसा क्यों हुआ? इस पर श्रीजीव गोस्वामी का मत है कि श्रीशुक्राचार्य परम भावुक भागवत थे, उन्होंने अपने भाव को - अपनी आराध्या को - हृदय में छिपाकर रखा, भाव छिपाने की वस्तु है। प्रेमपंथ के पथिकों की आचार्या गोपिकाएँ हैं, उन्होंने यही बतलाया कि प्रेम को छिपाओ। साठी धान्य भीतर ही भीतर अव्यक्त रूप में ही परिपक्व होता है। ऐसे ही इन भावुकों का प्रेम-परिपाक है। प्रेम की ऊँची दशा प्राप्त होने पर भी गोपियों ने लोक-लज्जा, शास्त्रीय धर्मादि को नहीं त्यागा, योगी की तरह अपने आप ही वे छूट गये- ‘न कर्माणि त्यजेद्योगी कर्मभिस्त्यज्यते ह्यसौ।’ इस तरह कर्मों ने ही इन्हें छोड़ा। यहाँ तक कि घर का काम-काज करते-करते भूल जाती थीं। जब दही बेचने जातीं, ‘दही लो’ की जगह ‘श्याम लो’ कहती थीं, इन्हें अपनी देह तक की विस्मृति हो जाती थी। कोई गोपी गो दोहन, कोई पति शुश्रूषण आदि जाति-धर्म, कुल-धर्म, वर्ण-धर्म आदि स्वधर्म के पालन में लगी थीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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