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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
भगवान ने अपने इन स्वाभाविक गति, स्मित आदि से बलात् उनके चित्त को अपने में खींच लिया। प्राणवियोग में मरण होता है। श्रीकृष्ण तो प्राणों के भी प्राण हैं, फिर उनके वियोग में व्रजसुन्दरियों का जीवन कैसे रहा यही अचरज है। उस समय उनके लिये परमाह्लादकर शारद पूर्णचन्द्र भी सूर्य के यद्वा प्रलयकालीन तीव्र सूर्यों के सदृश परम तापक हुआ। प्रलयकाल में नीचे से संकर्षण-ज्वाला उठती है, ऊपर से त्रयोदश प्रचण्ड चण्डांशु तपते हैं। शारद पूर्णचन्द्र शीतल, कोमल, मधुर, आह्लादकर होता है। परन्तु यही वियोगियों के लिये उक्त प्रलयकालीन संकर्षण-ज्वाला, त्रयोदशादित्य से सदृश परम सन्तापक होता है। व्रजवामाओं के लिये श्रीकृष्णचन्द्र रूप पूर्णचन्द्र के वियोग में प्रलय-सा उपस्थित हो गया। निश्चय था कि शीघ्र ही उनके प्राणपखेरू उड़ जाते। इस सन्ताप-स्थिति को दूर करने के लिये ही श्रीरमापति ने अपनी गति आदि से उनके चित्त को अपने में आकृष्ट कर लिया, क्योंकि चित्त रहे तो देहानुसन्धान हो। भगवान ने गोपरामाओं को सन्ताप-सूर्य से बचाने के लिये ही अपने गत्यादि से उनके चित्त को खींच लिया, अत: “आक्षिप्तचित्ताः प्रमदाः” कहा गया। अथवा “आक्षिप्तचित्ताः प्रमदाः” का अर्थ है- “अपने प्राणधन श्यामघन को ढूँढ़ने के लिये व्रजरामाओं ने अपने मन को प्रोत्साहन देकर निकाल दिया कि “हे मन! प्राणधन प्रियतम का पता नहीं और तुम यहाँ इस वियोग में शान्ति से बैठे हो, जाओ उनका पता लो।” यों तिरस्कारपूर्वक चित्त को निकाल दिया, फेंक दिया। इस तरह आक्षिप्तचित्तता बनी। जब चित्त ही नहीं, तब ताप का अनुभव कैसा? व्रजबालाएँ श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दघन को प्राप्त करके ‘प्रमदा’ बनी हैं। उन्हें अपने इस प्रमदात्व-हर्षप्रकर्ष अथवा मद-प्रकर्ष के कारण अपने इन्द्रियज्ञान तक का पता नहीं। वे प्रेमोन्माद में, संयोग में भी ऐसी वियोग की भावना किया करती हैं। वैसे तो उन्हें रोम-रोम में श्रीकृष्ण संयोग प्राप्त है। अतः यह प्रेमोन्माद में वियोग-भावना है। वे तो इस प्रकार से प्रियतम ही हैं, केवल ‘बरफ-पूतरी सिन्धुविच रटत पियास पियास’ की स्थिति है। बरफ की पूतरी में भीतर, बाहर, मध्य में जल ही जल है। वह स्वयं भी जल ही है। इसी प्रकार श्रीप्रिया-प्रियतम को परस्पर में सदा प्रेम की भूख रहती है- ‘हाय! प्रेम नहीं मिला’ और वे हैं स्वयं प्रियतम प्रेम के स्थान। सूर्य का प्रकाश अन्यत्र पर्वतादि में कभी होने और कभी नहीं होने से व्यभिचरित है, पर सूर्य में वह सदा रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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