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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
जब भूमा का पार्थक्य नहीं प्रतीत होता तब “अहमेव पुरस्तादहमेवोपरिष्टादहमेव दक्षिणतश्चोत्तरेण” की ही सर्वत्र प्रतीति होती है। इसी प्रकार तदवस्थापन्न व्रजांगना ‘जैसी श्याम की सब लीला, वैसी ही हमारी सब लीला’ ऐसा समझती हैं। इस रूप से अपने को श्यामाभिन्न समझकर कहती हैं- “मैं ही श्याम हूँ।” जिनमें ‘कृष्ण-विहार-विभ्रमा (कृष्णाय विहारेण विभ्रमो यासु’) की वस्तु स्थिति है, उनकी यह बात है, अन्यों की नहीं। सभी तो श्रीराधांश समुद्भूता नहीं। जो हैं उनमें ऐसा विभ्रम हुआ। मूल श्लोक में “न्यवेदिषुः” बहुवचन है। इसका यह अभिप्राय है कि सम्पूर्ण-अपरिगणित कोटि व्रजांगनाओं को विभ्रम हुआ। सबने अपने को कृष्ण समझा। विशेषता यह थी कि सभी अपने को कृष्ण समझती हैं, पर अन्यों को “मैं कृष्ण हूँ” ऐसे भ्रम से युक्त समझती हैं तथा च समझाती हैं- ‘सखि, हम तो तुम्हारे पास ही हैं, हमारे विप्रयोग से तुम क्यों इतनी म्लान हो रही हो?’ इस पर समझायी जाने वाली सखी समझाने वाली से कहती है- ‘सखि, तुम मो सखी हो, कृष्ण नहीं।’ तब वह उत्तर में कहती हैं- ‘नहीं, तुम तो सखी हो, मैं तो कृष्ण हूँ।’ यों वे एक दूसरी को समझाती हैं और अपने को सब श्रीकृष्ण समझती हैं तथा दूसरी को सब सखी जानती हैं। इस प्रकार वे व्रजांगना विभ्रमान्वित हुईं। यहाँ एक यह भी प्रश्न उठता है कि श्रीश्यामसुन्दर भगवान के विहार से इन्हें यह विभ्रम हुआ है, अथवा श्रृंगार-रसाक्रान्ततावश अपने चित्त की अनवस्थि से उन्हें यह भावना हुई कि- “हम कृष्ण हैं।” इस पर यही समझना चाहिये कि अधिकारानुसार पात्रों में भावना की उद्भूति होती है। इनमें किसी को श्रीकृष्ण विहार-विभ्रम से तो किसी को श्रृंगाराक्रान्तता से विभ्रम हुआ। बाकी विभ्रम सबको हुआ- “मैं ही कृष्ण हूँ।” “अन्तर्हिते भगवति सहसैव व्रजांगनाः। अतप्यंस्तमचक्षाणाः।।” भगवान श्रीकृष्ण के अन्तर्हित होने पर गोपरामा बहुत विह्वल हुई। उनका चित्त अपने प्राणधन की गति से, अद्भुत अनुराग, काममदभंजक स्मित, आकर्षक विभ्रम, मनोरमालाप से उनमें सर्वदा के लिये आकृष्ट हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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