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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
जब श्रीरमा का भी मन आकृष्ट हो गया‚ जिसने गुण-दोष को तौलकर उन्हें पति बनाया है‚ तब मुग्ध ग्वालिनियों का तो कहना ही क्या? समुद्र-मन्थन के समय श्रीरमादेवी प्रकट हुईं। उस समय वहाँ प्रायः सभी देव, ऋषि आदि उपस्थित थे और उसे चाहा भी सबने। परन्तु श्रीरमा ने स्वयंवर किया। उसने किसी में कोई दोष, तो किसी में कोई त्रुटि पायी। एक निर्दोष मिले तो विष्णु भगवान पर ये उसे चाहते ही नहीं-
अर्थात इन देवादि में कोई (मार्कण्डेयादि) दीर्घायु अवश्य हैं, पर स्त्रीजन को प्रसन्न करने के उपयुक्त शील और मंगल इनमें नहीं। तथाच किसी में (हिरण्यकशिपु आदि में) यह विशेषता है, तो उनकी आयु का कोई ठिकाना नहीं। किंच श्रीमहादेव आदि में ये दोनों बातें हैं, पर वे रूप और वेश आदि से अमंगल बने हैं और कोई (विष्णु) उक्त दोनों बातों के साथ सुमंगल भी हैं, पर वह मुझे चाहते ही नहीं। शंकर अनन्त, अखण्ड हैं, पर उनका वेश विलक्षण अमंगल है। विष्णु में सब बातें हैं, पर वे मुझे चाहते ही नहीं। अच्छा, न चाहें, मैं तो इन्हें चाहती हूँ। यह निश्चय करके लक्ष्मी ने श्रीविष्णु के गले में वरमाला पहना दी। भगवान भक्तपराधीन हैं। भक्त उन्हें जैसा नाच नचायें, नाचते हैं। भक्त भगवान को वन्यमाल पहनाता है, वह सूख भी जाती है, पर भगवान उसे उतारते नहीं, क्योंकि वह प्रिय भक्त की पहनायी हुई है। यद्यपि भगवान के अंग-संग से कोई भी वस्तु म्लान नहीं होती, तथापि यह भी एक भाव है। हाँ, तो यों भगवान अपने भक्त की पहनायी माला को उतारने नहीं। वह भगवान की दक्षिणावर्त्त सुवर्णरोमराजि पर सूखी हो जाने से कुरकुराती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (भाग. स्कं. 8, अ. 8, श्लोक 22)
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