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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
अनृत, मायामय संसार से चित्त हटकर उनमें फँसे, यही तो होना चाहिये। बड़े-बड़े अष्टांगयोगयुक्त योगी इसी के लिये लालायित रहते हैं। सिद्ध महात्मा जप, तप, ध्यान से इसी एक बात को निरनतर चाहा करते हैं। पर धन्य हैं, उन व्रजांगनाओं को, जिन्होंने योग से भी दुर्लभ तत्त्व को भोग से प्राप्त किया। श्रीश्यामसुन्दर मनमोहन की आभा में, सौन्दर्य झलक में उनका चित्त ऐसा उलझा कि फिर उलझा ही रह गया। अत: वह प्रमदा भी हैं। अर्थात इसी कारण प्रकृष्ट मद-हर्ष वाली होने से वे प्रमदा हैं। सममुच इससे बढ़कर और हर्ष का स्थान कौन होगा? औपनिषद विज्ञान भी ऐसा है- “प्रमोद उत्तरः पक्षः” अर्थात प्रिय, मोद, प्रमोद और आनन्द ये आनन्दमय ब्रह्म के एक अंग हैं। ये सब योनियों में अनुभूत होते हैं। देवादि में भी ये अनुभूत हैं। ये ही आनन्दसिन्धु शुद्ध ब्रह्म के चिह्न हैं। ये जहाँ से आते हैं, वहीं आनन्दसिन्धु है। तब आनन्दसिन्धु बलदेवबन्धु में आक्षिप्तचित्त होकर गोपांगनाएँ प्रकृष्ट हर्ष या मोद वाली हों, इसमें कहना ही क्या? पूर्वोक्त श्रीवल्लभाचार्य जी के अभिप्रायानुसार जब लीला-शक्ति ने ‘ताप’ को बाहर ही रोक दिया, तब वे सुतरां प्रमदा हो गयीं। यों उनका कथन भी ठीक हुआ। एक दूसरा भाव- “आकृष्टचित्ताः प्रमदा रमापतेः” श्रीव्रजदेवियाँ स्वयं सुन्दरी हैं, वे साधारण किसी व्यक्ति के गत्यादि से आक्षिप्तचेता न होंगी। अतः विशेष हेतु दिया- “रमापतेः-लक्ष्मीपतेः गत्यादिभिराक्षिप्तचित्ताः” अर्थात व्रजांगनाजन के आकृष्ट होने में ललित गति, मधुर आलाप आदि किसके? तो ‘रमापतेः’ लक्ष्मीपति के। इससे आक्षप्तिचित्तता का समर्थन किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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