भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
अतः वह तो हमारे दर्शनमात्र से चरितार्थ हो गया। आप लोग यदि रमणाभिलाषा से आतीं तो अंग-संग की आवश्यकता होती। आप यदि अंग-संग की इच्छा से आतीं तो आपको ब्रह्मसंस्पर्श प्राप्त होता। आपका तो स्वाभाविक प्रेम है और मेरे प्रति प्रेम होना स्वाभाविक ही है; क्योंकि ‘प्रीयन्ते मयि जन्तवः’ मेरे प्रति जीवमात्र का प्रेम है। यह तो मेरा स्वभाव ही है; अतः इसमें कोई विशेषता नहीं है। यहाँ ‘भवत्यः’ शब्द पूजार्थक है। इसका तात्पर्य यह है कि आप तो प्रेम की आचार्या और मुनिजनों के लिये भी वन्दनीया हैं। मेरे प्रति तो स्वभावतः समस्त जीवों का प्रेम है; फिर यदि आपका भी मेरे में अनुराग हुआ तो इसमें विशेषता ही क्या है? इसलिये आपका प्रेम तो मेरे दर्शनमात्र से ही चरितार्थ हो गया। ‘जन्तु’ पद से यहाँ देह से तादात्म्याध्यास वाले पामर और अनभिज्ञ प्राणी अभिप्रेत हैं; क्योंकि आत्मा तो वस्तुतः जन्म-मरण रहित है। वह ‘जन्तु’ शब्द का वाच्य नहीं हो सकता। जिस समय वह देह से अपना तादात्म्य करता है तभी ‘जन्तु’ कहा जाता है। मेरे प्रति तो उन पामर प्राणियों का भी प्रेम है, क्योंकि मैं सभी का आत्मा हूँ और आत्मा नाम की वस्तु सभी को प्रिय हुआ ही करती है। यद्यपि जीव देहादि में ही आत्मभाव कर लेते हैं तो भी मैं तो उनका भी परम-प्रेमास्पद हूँ। कहते हैं, जिस समय रामभद्र वन को पधारे उस समय अयोध्या में जो स्त्रियाँ पुत्रहीना थीं उन्हें भी जब प्रभु के वन गमनानन्तर पुत्र-प्राप्ति हुई तो प्रभु के वियोग के कारण उससे कुछ प्रसन्नता नहीं हुई; जिनके पति चिरकाल से विदेश गये हुए थे उन्हें उनका आगमन होने पर भी कोई सुख न हुआ। यहाँ तक कि पशु-पक्षी और स्थावरों की भी दुर्दशा ही रही। नदियाँ सूख गयीं और वृक्ष एवं लताएँ पत्र-पुष्पहीन हो गये। “अपि ते विषये म्लाना सपुष्पांकुरकोरकाः।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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