भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री भगवती-तत्त्व
यदि----- ‘‘विमतं (अग्नयादि) अजनकदशातो जनकदशायामतिशययोगि इस अनुमान को शक्ति साधक कहें, तो यह भी नहीं हो सकता, क्योंकि सहकारि समवधान के अतिशय से ही सिद्ध-साधनता है। यदि-‘‘अग्निः अतीन्द्रियसामान्यवन्निष्क्रियाश्रयः, कारणत्वान, गुरुत्वाश्रयवत्’’ इस अनुमान द्वारा शक्ति को सिद्ध करें, तो भी जो योगी को मानता है, उसके मत में किसी वस्तु के अतीन्द्रिय न होने से उक्त अनुमान में दिया हुआ, ‘अतीन्द्रिय’ विशेषण सिद्ध नहीं होती, अतः वैसे विशेषण से गर्भित अनुमान से शक्ति की सिद्धि कैसे हो सकती है? यदि कहा जाय कि, जैसे हमारा चक्षु, इन्द्रिय होने के कारण गुरुत्व जाति विषय नहीं है, वैसे ही योगी का चक्षु, इन्द्रिय होने के कारण गुरुत्व जाति विषय न होगा।’ इस अनुमान से अतीन्द्रिय की सिद्धि करके पूर्वोक्त अतीन्द्रिय सामान्य गर्भित अनुमान द्वारा शक्ति सिद्धि हो जायगी, तो यह भी उचित नहीं, क्योंकि वहाँ यह शंका होगी कि ऐसा अनुमान करने वाले की दृष्टि में योगीन्द्रिय प्रसिद्ध है या अप्रसिद्ध? यदि अप्रसिद्ध है, तो योगी को न मानने वाले मीमांसक की दृष्टि में आश्रयासिद्धि होगी। यदि प्रसिद्ध है, तो धार्मिग्राहक प्रमाण का बाध होगा अर्थात अस्मदादिकों के इन्द्रिय से विलक्षण योगीन्द्रिय को ग्रहण करता हुआ प्रमाण ऐन्द्रियक-अतीन्द्रियक साधारण ही उसका ग्रहण करायेगा, अतः उस प्रमाण से गुरुत्व-जातिविषयत्वा-भावरूप साध्य का बोध हो जायगा। यदि उस अतीन्द्रिय विशेषण को अस्मदादि के अभिप्राय से मानें, तो भी काम न चलेगा क्योंकि जब परमाणु को जानता हूँ, आकाश को जानता हूँ, ऐसा अनुव्यवसाय होता है, तब परमाणु और उसका ज्ञान मानसप्रत्यक्षरूप अनुव्यवसाय का विषय होता है। इस तरह सभी वस्तु ऐन्द्रयक-ज्ञानविषय बन जाने से अस्मदादि की दृष्टि से भी अतीद्रियत्व अप्रसिद्ध ही रहता है और इस तरह पूर्वोक्त दोष ज्यों-का-त्यों रहने से उक्त अनुमान से शक्ति सिद्धि नहीं हो सकती। यदि उस अनुमान में, अनुव्यवसायातिरिक्त अस्मदादि ऐन्द्रियक बुद्धि के अगोचर होने के आशय से वह अतीन्द्रियतवरूप विशेषण है, ऐसा कहें, तो भी ठीक नहीं, क्योंकि अन्यप्रमाण से उपनीत विशेषणावगाहिविशिष्टान मानने वाले के मत में सभी पदार्थों की एन्द्रियकता सम्भव होने से पूर्वोक्त दोष ज्यों-का-त्यों रह जाता है। अर्थात जिनके मत में ‘सुरभि चन्दनम्’ इत्यादि विशिष्ट ज्ञान प्रमाणन्तर घ्राण आदि से उपनीत गन्धादि को भी विषय कहते हैं, उनके मन में यर्किंचित प्रत्यक्षार्थ विशेषण होने से सभी पदार्थ ऐन्द्रियक बुद्धिबाध्य हो सकते हैं, अतः अप्रसिद्ध विशेषणता उक्त अनुमान में तदवस्थ ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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