भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री भगवती-तत्त्व
स्फोटरूप कार्य की उत्पत्ति के लिये वहाँ शक्तयन्तर की उत्पत्ति मानना भी उचित नहींं है, क्योंकि उसके किसी कारण का वहाँ निरूपण नहींं किया जा सकता। अग्निसामग्री से वहाँ कर्योत्पति नहीं कहीं जा सकती, क्योंकि वह तो नष्ट हो ही चुकी है। अशक्त अग्नि उत्पादक न होने से उस आश्रयभूत अग्नि से भी कार्योत्पत्ति नहींं कही जा सकती। यदि उत्पादकत्व मानें, तो कार्य में भी वह वैसे ही विद्यमान होने से शक्ति को मानना निष्प्रयोजन है। यदि वह शक्त है, तो उस शक्ति को कार्य के विषय में भी मान लेने से काम चल जाता है। ऐसी स्थिति में कारणान्तर का निरूपण न होने से शक्त्यन्तर की उत्पत्ति नहींं मानी जा सकती। प्रतिबन्धाभाव को भी कारण नहींं कहा जा सकता, क्योंकि अभाव की कारणता अस्वीकृत है। यदि अभाव को कारण माना जाय, तो उसी से स्फोटादि कार्यो की उत्पत्ति हो जायेगी, फिर अतीन्द्रिय शक्ति की कल्पना से क्या लाभ? एक शक्ति से दूसरी शक्ति का प्रतिबन्ध मानने से अनवस्था-प्रसंग प्राप्त होगा, क्योंकि उसमें भी उक्त दूषण के परिहारार्थ शक्ति प्रतिबन्ध कहना पड़ेगा। अतः शक्ति के बिना भी कार्य के अन्यथापि उपपन्न हो जाने से अतीन्द्रिय शक्ति की कल्पना का कोई अवकाश नहींं है। उपादानोपादेय भावरूप नियम की अनुपपत्ति भी शक्ति में प्रमाण नहींं कही जा सकती अर्थात दुग्धादि जैसे दध्यादि का उपादान है, न कि तिलादि, एवंच तिलादि ही तैलादि का उपादान है, न कि दुग्धादि, ऐसा जो नियम है, उसकी शक्ति को बिना स्वीकार किये आपत्ति न होने के कारण शक्ति मानना आवश्यक है, ऐसा नहींं कहा जा सकता, क्योंकि शक्ति के बिना माने ही अनादिसिद्ध वृद्ध व्यवहार से निर्णीत तत्तत्कार्यानुकूल स्वभाव की विशेषता से ही उपादानोपादेय-नियम की सिद्धि हो जाती है। यदि स्वभाव को नियात्मक न माना जाय तो शक्ति में भी नियम न रह सकेगा। ‘यह शक्ति यहीं क्यों है, अन्यत्र क्यों नहींं है, इसका समाधान स्वभावभेद के अतिरिक्त और क्या हो सकता है? अतः कहना होगा कि दोनों प्रकार की अर्थापत्तियों को उपर्युक्त रीति से शक्ति में प्रमाण नहींं कहा जा सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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