भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इधर व्रजांगनाओं का व्रत भी तत्सुख-सुखित्व ही था। वृन्दावन से मथुरा कुछ दूर नहीं थी; परन्तु भगवान की इच्छा न देखकर उन्होंने मरण से भी सहस्रगुण दुःखदायिनी वियोग-व्यथा तो सहन की किन्तु मथुरा नहीं गयीं। अतः सेवक का प्रधान कर्तव्य तो स्वामी की आज्ञा पालन करना ही है। जिस समय भगवान देखते हैं कि मेरा भक्त मुझसे मिलने के लिये अत्यन्त उत्सुक है उस समय वे उसे अपनी माधुरी का थोड़ा-सा रसास्वादन करा देते हैं। ऐसा वे इसीलिये करते हैं जिससे कि उस उपासक की भगवन्मिलन की तृष्णा और भी अधिक तीव्रतर हो जाय। इसी से भगवान का भजन करने वालों को कभी-कभी कुछ विलक्षण आनन्द का अनुभव हुआ करता है; परन्तु वह स्थिर नहीं रहता। वह भजनानन्द तो प्रभुप्रेम की आसक्ति के लिये है। जिस प्रकार किसी कामुक पुरुष को कामिनी सौन्दर्य का थोड़ा-सा भी व्यसन हो जाने पर फिर उसे कितना ही समझाया जाय वह उसे छोड़ नहीं सकता उसी प्रकार जिसे भजनानन्द की थोड़ी-सी भी चाट लग गयी है उसे संसार का कोई भी सुख आकर्षित नहीं कर सकता। देखो, जिस समय नारद जी ने देखा कि मेरी माता का देहावसान हो गया तो वे यह समझकर कि मेरा भगवद्भजन का एकमात्र प्रतिबन्ध नष्ट हो गया बहुत प्रसन्न हुए और तत्काल वन को चल दिये। वहाँ इन्द्रियों का निरोध कर दीर्घकाल तक भगवद्भजन करते रहे। इसी समय एक दिन भगवान ने उन्हें अपनी मधुरिमा का यत्किंचित् रसास्वादन कराया। परन्तु वह आनन्द बहुत जल्दी तिरोहित हो गया। इससे नारद जी बड़े व्यग्र हुए। उन्होंने बहुतेरा यत्न किया परन्तु पुनः उस रस का समास्वादन न कर सके। उन्होंने प्रभु से बहुतेरी अनुनय-विनय की, वे बहुतेरे विहल हुए, परन्तु प्रभु ने फिर कृपा न की। वास्तव में तो प्रभु की यह कठोरता ही परम कृपा थी। भगवान की सबसे बड़ी कृपा तो यही है कि जीव उनके लिये अत्यन्त तृषित हो जाय। यह तो परम सौभाग्य है। हम लोग स्त्री, धन आदि के लिये निरन्तर शोक-समुद्र में डूबे रहते हैं। किन्तु प्रभु के लिये हमारा अन्तःकरण कभी द्रवीभूत नहीं होता। न जाने वह समय कब आयेगा जब प्रभु के विप्रयोगानल में दग्ध होकर हमारा एक-एक पल एक-एक कल्प के समान व्यतीत होगा। भावुकों की स्थिति ऐसी ही विलक्षण हुआ करती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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