भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
भगवान की यह विचित्र वाचोभंगी सुनकर कुछ व्रजांगनओं की तो अभिरुचि सुस्थिर हुई और कुछ को व्यामोह हुआ। भगवान का यह वाग्विन्यास बड़ा ही विचित्र था। इससे भिन्न-भिन्न निष्ठा वाले भिन्न-भिन्न अर्थ निकाल सकते थे। कर्मियों के लिये इसमें कर्मानुष्ठान का आदेश था, जिज्ञासुओं के लिये कर्म संन्यास की विधि थी, उपासकों के लिये कर्म समुच्चय का विधान था, गोपियों के लिये गोष्ठ को लौट जाने का आदेश था और प्रकारान्तर से न लौटने के लिये भी अनुमति थी। वस्तुतः रासपंचाध्यायीरूप यह अमृतसिन्धु ऐसा गम्भीर है कि हम इसके एक बिन्दु का मर्म भी यथावत नहीं समझ सकते। वेद भगवान की सुषुप्ति के समय उनके अज्ञात रूप से प्रकट हुए श्वासोच्छ्वास हैं। “अस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेव ऋग्वेदः।” किन्तु उनका कर्म आकलन करने में भी बड़े-बड़े मनीषिजन घबराते हैं। फिर जिन वाक्यों का उच्चारण प्रभु ने स्वयं लीला-विग्रह धारण करके किया उनके भाव-गाम्भीर्य का तो कहना ही क्या है; उसके तो जितने अर्थ किये जायँ थोड़े ही हैं। अब हम इस श्लोक का उपसंहार कर आगे के श्लोक पर विचार करते हैं। भगवान ने कहा था कि हे व्रजांगनाओं! तुम जाओ। इस पर व्रजांगनाएँ सोचती हैं- ऐसी जल्दी क्या है, वन की शोभा देखकर चली जायँगी। किन्तु भगवान कह रहे हैं- ‘मा चिरम्’ देरी मत करो; क्योंकि यह रात्रिकाल पति शुश्रूषारूप परमधर्म का उपयुक्त समय है और धर्मानुष्ठान में विलम्ब होना उचित नहीं है। इसलिये तुम जाओ और पतियों की तथा उनकी माता आदि सतियों की शुश्रूषा करो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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