भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इस प्रकार भगवान के निराकरण करने पर व्रजांगनाएँ बहुत खिन्न हुईं। वे सन्तप्त होकर दीर्घ निःश्वास छोड़ती हुई कुछ सोच रही हैं- यह देखकर भगवान कहते हैं-
भगवान की यह रीति है कि सीधे-सीधे किसी को उत्तर नहीं देते; न तो सहसा स्वीकार ही करते हैं और न अस्वीकार ही। संसार में दो प्रकार के लोग ही सुखी होते हैं; या तो परम बोधवान् और या अत्यन्त मूढ़।
इसलिये भगवन्मार्ग में लगे हुए प्राणी प्रायः व्याकुल ही दिखाई दिया करते हैं। वस्तुतः इस व्याकुलता की आवश्यकता भी है। जिस समय भगवान के सम्मिलन की अभिलाषा क्षुधा-पिपासा के समान अत्यन्त बढ़ जाय तभी प्राणी को समझना चाहिये कि हम ठीक मार्ग पर चल रहे हैं। परन्तु यह प्राणी दीर्घकाल से भगवान से बिछुड़ा हुआ है। इसलिये भगवत्सम्मिलन की उत्कट इच्छा होना अत्यन्त दुर्लभ है। जैसे अजीर्ण के रोगी को भूख लगना अत्यन्त आनन्द का हेतु होता है उसी प्रकार प्रपंचासक्त जीव को भगवत्प्राप्ति की तृष्णा अत्यन्त सौभाग्य का फल है। इसी से भगवान शंकराचार्य ने भगवत्प्राप्ति के साधनों में सबसे अन्तिम साधन मुमुक्षा बतलाया है। इस मुमुक्षा के पश्चात् ही जिज्ञासा होती है। यदि भगवान के ज्ञान की उत्कट इच्छा हो जाय तो फिर उनके मिलने में कुछ भी देरी न हो। सारे साधन इस जिज्ञासा के लिये ही है। भगवान को जानने की यह उत्कट इच्छा भगवत्कृपा से ही होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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