भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
अतः भगवन आप उन्हें निकालिये। नहीं तो, आपका अपयश अवश्य होगा; क्योंकि-
वास्तव में, जिस राजा के राज्य में चोर प्रजा का धन अपहरण करते हैं उस राजा के लिये वह कलंक ही है; क्योंकि प्रजा तो राजा का सर्वस्व है। ‘प्रजायन्त इति प्रजाः’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार ‘प्रजा’ शब्द का अर्थ ही पुत्र है। अतः राजा का यह परम कर्तव्य है कि वह प्रजा के हित की रक्षा करे। इस प्रकार जिस समय यह जीव प्रभु को ही अपना एकमात्र आश्रय बना लेता है उस समय उसके सारे विकार निवृत्त हो जाते हैं। जब वह स्वयं प्रकाश श्रीहरि के सम्मुख होता है तब उसके हृदय भवन का कल्मष रूप अन्धकार तत्तकाल निवृत हो जाता है। अतः भगवान का भी बुद्धियों के प्रति यही कथन है कि तुम इन इन्द्रिय वृत्तियों को पयःपान मत कराओ। यह बात ठीक है कि इन्द्रियों के व्यापार का सर्वथा निरोध नहीं किया जा सकता। शरीर रक्षा के लिये भोजनादि भी करना ही होगा। अतः आवश्यकता इसी बात की है कि अपनी प्रवृत्तियों को शास्त्रीय करो। नित्य-नैमित्तिक कर्मों का अनुष्ठान करो। उन्हीं विषयों को ग्रहण करो जिनके बिना तुम्हारा निर्वाह न हो सके। भगवान के दिये हुए देह और इन्द्रियों का सदुपयोग करो। भगवान ने अपनी प्राप्ति के लिये ही ये देह और इन्द्रियाँ आदि दी हैं। अतः इनसे वही कार्य करो जो भगवत्प्राप्ति में सहायक हैं। इनकी सात्त्विकी प्रवृत्ति को प्रबल करो राजस को निर्बल कर दो और तामस प्रवृत्ति बिल्कुल मत होने दो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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