भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
कर्मकाण्डी को जो अन्धन्तमः की प्राप्ति बतलायी वह इसलिये है कि उसे केवल कर्म में ही न रह जाना चाहिये। यदि वह कर्मजड़ हो गया तो उपासना साध्य उत्कृष्ट फल से वंचित रह जायगा; अतः कर्म के साथ-साथ उसे उपासना का भी अनुष्ठान करना चाहिये। फिर जिस समय कर्म और उपासना से ऊपर उठे हुए जिज्ञासु को श्रुति तत्त्वज्ञान का उपदेश करती है उस समय कर्मादि से उसकी प्रवृत्ति हटाने के लिये वह कर्म की निन्दा करती है। उस समय वह कहती है- ‘प्लवा ह्येतेऽदृढा यज्ञरूपाः।’ परन्तु कर्मकाण्ड का प्रतिपादन करते समय वह ऐसा कभी नहीं कह सकती। अतः भगवान कहते हैं- ‘हे श्रुतिया! यदि तुम मुझमें अपना तात्पर्य निश्चय करोगी और इससे अज्ञानी लोग क्रन्दन करेंगे तो इसमें तुम्हारा दोष नहीं होगा। इसके लिये तो वे ही उत्तरदायी होंगे। उन्हें चाहिये कि वे किसी विज्ञ की शरण में जाकर श्रुत्यर्थ का अनुशीलन करें।’ वस्तुतः यह पद्धति है कि जो जिस निष्ठावाला हो उसे उसी निष्ठावालों का संग करना चाहिये। कर्मी कर्मी का, भक्त भक्त का और ज्ञानी ज्ञानियों का संग करे। शास्त्र का तात्पर्य समझने के लिये भी शास्त्रज्ञ गुरु की शरण में ही जाना चाहिये, शास्त्र का मर्म विज्ञ पुरुष ही खोल सकते हैं। अतः भगवान कहते हैं- ‘तान् पाययत टुह्यत च न’-तुम उन्हें पयपान मत कराओ और उनके लिये कर्मफल दुहने की चेष्टा मत करो। तुम तो मेरा ही प्रतिपादन करो; क्योंकि महातात्पर्य का प्रतिपादन होने पर अवान्तर तात्पर्य तो उसी में आ जाते हैं। यह नियम है कि किसी उत्कृष्ट धर्म का निर्वाह करने में निकृष्ट धर्म का अपवाद भी हो जाय तो कोई दोष नहीं होता। अतः ‘पतीन् शुश्रूषध्वम्’- अपने परमतात्पर्य परब्रह्म का ही प्रतिपादन करो। एक पतिव्रता अपने पतिदेव की चरण सेवा कर रही थी। पतिदेव सोये हुए थे। इसी समय उसका पुत्र अग्नि की ओर जाने लगा। उसके चित्त में उसे उधर जाने से रोकने का विचार हुआ परन्तु ऐसा करने के लिये उसे पतिसेवा छोड़नी पड़ती थी। इसलिये उसने पतिसेवा को ही अपना परम कर्तव्य समझकर बच्चे को बचाने का कोई प्रयत्न नहीं किया। इस उत्कृष्ट धर्म के प्रताप से अग्निदेव शीतल हो गये और बालक का बाल भी बाँका नहीं हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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