भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इसी से भगवान कहते हैं- हे श्रुतियों, जब तक तुम अपने परमतात्पर्य का विषय शुद्ध बुद्ध मुक्त परब्रह्म का प्रतिपादन करने में प्रवृत्त नहीं हुई थीं तब तक तो कर्म और उपासना का पोषण करके उन अज्ञ जनों को पयपान करा सकती थीं, परन्तु अब, जबकि तुम इस ओर आयी हो, तुम उनके लिये कर्मफल रूप दुग्ध का दोहन करने की चेष्टा मत करो। इधर बुद्धियों की दृष्टि से देखें तो उन्हें भगवान यही उपदेश देते हैं कि ‘मा यात गोष्ठम्’-घट-पटादि अनात्म विषयों की ओर मत जाओ; बल्कि ‘शुश्रूषध्वं पतीन्’ अपने अवभासक और अधिष्ठानभूत परब्रह्म की ओर देखो। इस प्रसंग में ‘क्रन्दन्ति बाला वत्साश्च’ इसका यह तात्पर्य है कि जब तक परब्रह्म की अनुभूति नहीं होती तब तक अन्तःकरण और इन्द्रियाँ घबराते रहते हैं। उनकी जो बाह्य-प्रवृत्ति है वह उनके दुःख का ही कारण है। श्रुति कहती है- “परांचि खानि व्यतृणत्स्वयम्भूः।” यहाँ हमें ‘व्यतृणत्’ शब्द पर विशेष रूप से विचार करना है। भगवान भाष्यकार ने ‘व्यतृणत्’ का पर्याय ‘हंसितवान्’ लिखा है। अर्थात् स्वयम्भू परमात्मा ने इन्द्रियों को बहिर्मुख करके हिंसित कर दिया है। बहिर्मुख होने में इन्द्रियों की हिंसा कैसे मानी गयी? इसमें यही कहना है कि अपने प्रियतम से विमुख कर देना हिंसा ही तो है।। इन्द्रियाँ अपने परम प्रेमास्पद सर्वान्तरतम परमात्मा का अनुभव नहीं कर रहीं, बल्कि नाम-रूपात्मक संसार में ही भटक रही हैं। यही उनका वध है। अतः जब तक हमारी समस्त इन्द्रियों की प्रवृत्ति परब्रह्म परमात्मा की ओर नहीं होती तब तक वे अत्यन्त व्यग्र रहती हैं। यही उनका क्रन्दन है- “मन-करि विषय-अनल बन जरई। प्रायः यह देखा जाता है कि विविध विध भोग-सामग्री से सम्पन्न महानुभाव भी अशान्ति के चंगुल में फँसे रहते हैं। उनकी भोग तृष्णा को जैसे-जैसे भोजन मिलता जाता है वैसे-वैसे ही वह और भी अधिक उत्तेजित होती जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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