भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
पति, पिता, भ्राता आदि के रोकने पर भी वे न रुकीं। जब कुछ व्रजांगनाओं को उनके पति आदि ने गृह के भीतर रोक लिया तो वे वहीं नेत्र मींचकर श्रीकृष्ण का ध्यान करने लगीं। प्रियतम के दुःसह विरहजन्य तीव्र ताप से समस्त पाप कम्पित हो उठे और ध्यान प्राप्त प्रियतम के परिरम्भणजन्य अनन्त आनन्द से पुण्य भी दुर्बल हो गये। इस तरह व्रजांगना सद्यः क्षीणबन्धन होकर गुणमय देह को त्याग जारबुद्धि से भी उन्हीं भगवान को प्राप्त हो गयीं। समीप में आयी हुई व्रजांगनाओं को देखकर भगवान अपनी वचन-चातुरी से मोहित करते हुए बोले- “हे महाभागाओं, आपका स्वागत हो। हम आप लोगों का क्या प्रिय करें? व्रज में कुशल तो है? आप लोग अपने आगमन का कारण कहो। यह घोररूपा रजनी घोर व्याघ्रादि जन्तुओं से निषेवित है। आप लोग व्रज में जाओ। हे सुमध्यमाओं, यहाँ स्त्रियों को नहीं ठहरना चाहिये। आप लोगों के माता, पिता, भ्राता, पति घर में न देखकर ढूँढ़ते होंगे। बन्धुओं को संकट न पहुँचाओं। बहुत हो चुका, अब आप लोग विलम्ब मत करो। व्रज को चली जाओ।” आनन्दकन्द भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने व्रजांगनाओं को यही आदेश दिया कि तुम लोग गोष्ठ में रहकर अपने पतियों की शुश्रूषा करो। हमारी प्राप्ति का यही उपाय है। यदि पातिव्रत्य में तुम्हारी गति न हो तो ‘शुश्रूषध्वं सतीः’ पतिव्रताओं की सेवा करो। इस व्याज से भगवान ने समस्त पुरुषों को यही उपदेश किया है कि जिनकी गति परब्रह्म की उपासना में न हो वे देवता और माता-पितादिरूप वैदिक और लौकिक ईश्वरों की उपासना करें। यदि वे पहले इन ईश्वरों की सेवा करेंगे तो क्रमशः उन्हें परमेश्वर की प्राप्त हो जायगी। इससे सिद्ध हुआ कि जिन पुरुषों के पाप-पुंज की कर्म और उपासना द्वारा निवृत्ति हो गयी है वे ही भगवद्धाम में प्रवेश करने के अधिकारी हो सकते हैं- “नाराणां क्षीणपापानां कृष्णे भक्तिः प्रजायते।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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