भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इसके सिवा यह भी प्रसिद्ध ही है कि-
अतः यदि तुम वर्णाश्रम-धर्माचार के द्वारा इन लौकिक और वैदिक ईश्वरों की सेवा करोगे तभी परमेश्वर की प्राप्ति कर सकोगे। अनभिज्ञ पुरुषों को ही मोहवश स्वधर्म में अरुचि और परधर्म में रुचि होती है। इसी प्रकार अर्जुन को भी जो परधर्म में रुचि हुई थी वह उसका मोह ही था। उसने जो क्षात्रधर्म का परित्याग कर ब्राह्मणधर्म का आश्रय लिया था और बन्धुवध से विरत होकर कहा था कि ‘गुरुनहत्वा हि मानुभावान श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके’ वह उसका भयंकर व्यामोह ही था। जिस प्रकार रुग्णावस्था में पित्तादि के दूषित हो जाने से लोगों को निम्बादि कटु पदार्थों में रुचि होने लगती है और दुग्धादि में अरुचि हो जाती है, उसी प्रकार मोह के कारण ही स्वधर्म में अरुचि हुआ करती है। अतः रुचि हो या न हो, उचित यही है कि स्वधर्म का आश्रय लिया जाय और परधर्म का परित्याग किया जाय। इससे सिद्ध हुआ कि जिस प्रकार भगवान ने व्रजांगनाओं से कहा था कि मुझ परपुरुष का संग छोड़कर तुम अपने पतियों की सेवा करो इसी प्रकार साधारण मनुष्यों को भी उनका यही आदेश है कि उन्हें स्वधर्म का ही आश्रय लेना चाहिये। जिस प्रकार छत पर जाने के लिये प्रत्येक सीढ़ी पर होकर जाना पड़ता है, उसी प्रकार परमात्मप्राप्ति में भी क्रमकि साधना का अवलम्बन करना होता है। जो लोग सोपानातिक्रम करके परमोच्च नैष्कर्म्य का आश्रय लेते हैं, उनका ऐसा पतन होता है कि फिर उत्थान होना दुर्लभ हो जाता है। इसी से महापुरुष कर्मत्याग में भय दिखलाया करते हैं। भगवान ने भी इसी कारण कर्मानुष्ठान की आवश्यकता प्रदर्शित करने के लिये अर्जुन से कहा था-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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