भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
किस प्रकार उदित हुआ सो बतलाते हैं- ‘यथा प्रियः श्रीकृष्णः प्रियायाः श्रीवृषभानुनन्दिन्या मुखम् अरुणेन कुंकुमेन विलिम्पन् उदगात्।’ अर्थात जिस प्रकार प्रिय श्रीकृष्णचन्द्र अपनी प्रियतमा श्रीवृषभानुनन्दिनी के मुख को अरुण कुंकुम से विलेपित करते हुए उदित हुए थे, उसी प्रकार यह विवेकचन्द्र उदित हुआ। इसके सिवा प्रथम श्लोक की व्याख्या करते हुए जहाँ ‘ताः’ शब्द से ज्ञानीरूपा प्रजा ग्रहण की गयी है, वहाँ पर यह समझना चाहिये कि जिस समय भगवान श्रीकृष्ण ने ज्ञानियों के विवेकी अन्तःकरण रूप अरण्य में रमण करने की इच्छा की ‘तदैव’- उसी समय ‘उडुराजः’ परमात्मारूप चन्द्र का उनक विवेकी अन्तःकरण वृन्दारण्य में श्रुतिरूपा व्रजांगनाओं के साथ रमण करने के लिये उदय हुआ। यहाँ ‘उडुराजः’ शब्द का तात्पर्य ऐसा समझना चाहिये- ‘उडुस्थानीयेषु परिमितज्ञानक्रियादिशक्तिशीलेषु जीवेषु राजते इति उडुराजः- अर्थात परमात्मारूप चन्द्र उडुस्थानीय परिमित ज्ञानक्रियादि शील जीवों में राजमान हैं, इसलिये उडुराज हैं। जीवों की उपाधि मलिन है, इसी से उनकी ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति अभिभूत रहती है। उनकी शक्ति परिच्छिन्न हैं। अतः उन्हें विषय के साथ इन्दियों का सन्निकर्ष होने पर ही कुछ ज्ञान होता है। प्रमाण-निरपेक्ष ज्ञान नहीं होता, क्योंकि सारे प्रमाण आवरण के अभिभावक हैं। किन्तु परमात्मा की ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति अपरिच्छिन्न है, उनकी उपाधिभूता लीलाशक्ति भी परम विशुद्धा है। अतः वह अपने आश्रय परमात्मा का आवरण नहीं करती; इसलिये परमात्मा की स्वाभाविकी ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति शक्ति अपनी उपाधि से अनभिभूता होने के कारण किसी प्रकार के प्रमाण की अपेक्षा नहीं रखती। इस प्रकार प्रमाणानपेक्ष ज्ञान क्रियावान् होने के कारण ही परमात्मा अन्य जीवों की अपेक्षा अधिक राजमान (शोभाशाली) है और इसी से जीवरूप उडुओं की अपेक्षा से उसे उडुराज कहा है। अथवा यों समझो कि घटाकाश स्थानीय जीव उडु के समान हैं और महाकाशरूप परमात्मा नियन्तृत्वेन जीवों में विराजमान है। यह नियन्तृत्व ऐसा है कि जैसे घटाकाश महाकाश के अधीन है उसी प्रकार अन्तःकरणावच्छिन्न चैतन्य परमेश्वर के अधीन है। इसी से अभेद होते हुए भी नियमन बन जाता है। अथवा जैसे प्रतिबिम्ब बिम्बाधीन हैं उसी प्रकार जीव ईश्वर के अधीन हैं। इस प्रकार भी वह उडुराज है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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