भक्ति सुधा -करपात्री महाराज पृ. 1036

भक्ति सुधा -करपात्री महाराज

श्रीरासलीलारहस्य

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अथवा ‘रलयोः डलयोश्चैव’ आदि नियम के अनुसार ‘उडुराजः’ के स्थान में ‘उरुराजः’ मानें तो यों समझना चाहिये-‘उरुधा जीवेशादिरूपेण बहुधा राजत इति ‘उरुराजः’ अर्थात जीव-ईश्वरादिरूप से अनेक प्रकार राजमान है इसलिये परमात्मा उरुराज है; जैसे कि कहा है- ‘इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते।’ अथवा सगुण-निर्गुण रूप से अनेक प्रकार राजमान है, इसलिये उरुराज है; या जायमान और अजायमान रूप से राजमान है, इसलिये उरुराज हैं जैसा कि श्रुति कहती है- ‘अजायमानो बहुधा व्यजायत’ अर्थात अजन्मा होने पर भी परमात्मा महदादि रूप से अनेक प्रकार उत्पन्न हुआ है। अथवा रासलीला में वे अनेक रूप से राजमान हुए थे इसलिये उरुराज हैं।

श्रुति भी कहती है-‘स एकधा भवति दशधा भवति शतधा सहस्रधा भवति’ इत्यादि। अथवा बहुत से विभक्त पदार्थों में अविभक्त रूप से अकेला ही विराजमान है इसलिये परमात्मा उरुराज है। ‘अविभक्तं विभक्तेषु’ अर्थात विभक्त जो कार्यवर्ग उसमें परमात्मा अविभक्त यानी कारणरूप से स्थित है; अथवा विभक्त जो साक्ष्यवर्ग उसमें वह अविभक्त यानी साक्षीरूप से स्थित है; या ऐसा समझो कि विभक्त जो काल्पनिक प्रपंच उसमें वह अधिष्ठान रूप से ओतप्रोत है। इन्हीं सब कारणों से परमात्मा उरुराज यानी उडुराज है। वह स्वप्रकाश पूर्ण परब्रह्म परमात्मा, जो सबका महाकरण ओर स्वरूपतः कार्यकारणातीत है, ज्ञानियों के विवेकी अन्तःकरणरूप अरण्य में रमण करने के लिये आविर्भूत हुआ।

यहाँ रमण का अर्थ है तत्पदार्थ के साथ त्वंपदार्थ का ऐक्य हो जाना। जो अन्तःकरण विवेकचन्द्र की शीतल सुकोमल अमृतमय किरणों से सुशोभित है उस अन्तःकरण रूप वृन्दारण्य में यह तत्पदार्थरूप भगवान् त्वंपद के अर्थभूत अनन्त जीवरूप व्रजांगनाओं के साथ रमण करने को अर्थात्‌ अपने साथ उनका तादात्म्य स्थापित करने को प्रकट होता है, क्योंकि असली रमण तो यही है कि नायक और नायिका का देश, काल और वस्तुरूप व्यवधान से रहित सम्मिलन हो। यही पारमार्थिक रमण है। लौकिक रमण में तो कुछ न कुछ व्यवधान रहता ही है; क्योंकि जब तक द्वैत बना हुआ है तब तक उसमें विभाग भी रहता ही है।

वे भगवान् रूप उडुराज सबके अभिलषित हैं, इसलिये ‘प्रियः’ हैं, क्योंकि वे सभी के अन्तरात्मा हैं। आत्मा नाम की वस्तु किसी को भी अप्रिय नहीं होती। संसार में सुख-प्राप्ति और दुःख-निवृत्ति के लिये जितनी चेष्टाएँ होती हैं, सब आत्मार्थ ही हैं। ऐसी स्थिति में अपने परप्रेमास्पद भगवान् के साथ कौन रमण करना न चाहेगा?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भगवत्प्राप्ति 1
2. नामरूप की उपयोगिता 3
3. इष्टदेव की उपासना 8
4. मानसी-आराधना 20
5. सगुणोपासना में सरलता 24
6. संकल्पबल 28
7. श्री शिवतत्व 48
8. शिव से शिक्षा 60
9. शिवलिंगोपासना-रहस्य 63
10. श्री विष्णु-तत्त्व 88
11. गायत्री-तत्त्व 97
12. श्री भगवती-तत्त्व 102
13. बुद्धावतार का प्रयोजन 178
14. गजेन्द्र-मुक्ति 182
15. शक्ति का स्वरूप 188
16. माँ के चरणों में 194
17. पीठ रहस्य 226
18. गणपति तत्त्व 235
19. अवतारमीमांसा 247
20. निराकार से साकार 255
21. भगवदवतार का प्रयोजन 275
22. भारत ही में अवतार क्यों? 281
23. ज्ञान और भक्ति 287
24. भक्तिरसामृतास्वादन 327
25. अव्यभिचार भक्तियोग 352
26. सबसे सगे भगवान 360
27. चतुर्विधा भजन्ते 363
28. भगवच्छरणागति से ही गति 367
29. भगवान का अवलम्बन अनिवार्य 372
30. प्रेमतत्त्व 375
31. भगवान और प्रेम 384
32. भगवत्कथामृत 390
33. प्रभुकृपा 396
34. निर्बल का बल 401
35. करुणालहरी 408
36. श्रीरामजन्म-रहस्य 411
37. श्री रामभद्र का ध्यान 415
38. श्रीकृष्ण-जन्म 422
39. भगवान का मंगलमय स्वरूप 428
40. विभीषण-शरणागति 450
41. श्रीकृष्ण बालक्रीड़ा 469
42. साक्षान्मन्मथमन्मथः 486
43. श्रीवृन्दावन में वर्षा और शरत 507
44. वेणुरव 512
45. किरातिनियों का स्मररोग 517
46. वेणुगीत 525
47. चीरहरण 691
48. वेदान्त-रससार 730
49. निर्गुण या सगुण? 781
50. व्रज-भूमि 797
51. सर्वसिद्धान्त-समन्वय 808
52. क्या ईश्वर और धर्म बिना काम चलेगा? 839
53. श्रीरासलीलारहस्य 854
54. श्री रासपञ्चाध्यायी 1142

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