भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
अथवा ‘रलयोः डलयोश्चैव’ आदि नियम के अनुसार ‘उडुराजः’ के स्थान में ‘उरुराजः’ मानें तो यों समझना चाहिये-‘उरुधा जीवेशादिरूपेण बहुधा राजत इति ‘उरुराजः’ अर्थात जीव-ईश्वरादिरूप से अनेक प्रकार राजमान है इसलिये परमात्मा उरुराज है; जैसे कि कहा है- ‘इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते।’ अथवा सगुण-निर्गुण रूप से अनेक प्रकार राजमान है, इसलिये उरुराज है; या जायमान और अजायमान रूप से राजमान है, इसलिये उरुराज हैं जैसा कि श्रुति कहती है- ‘अजायमानो बहुधा व्यजायत’ अर्थात अजन्मा होने पर भी परमात्मा महदादि रूप से अनेक प्रकार उत्पन्न हुआ है। अथवा रासलीला में वे अनेक रूप से राजमान हुए थे इसलिये उरुराज हैं। श्रुति भी कहती है-‘स एकधा भवति दशधा भवति शतधा सहस्रधा भवति’ इत्यादि। अथवा बहुत से विभक्त पदार्थों में अविभक्त रूप से अकेला ही विराजमान है इसलिये परमात्मा उरुराज है। ‘अविभक्तं विभक्तेषु’ अर्थात विभक्त जो कार्यवर्ग उसमें परमात्मा अविभक्त यानी कारणरूप से स्थित है; अथवा विभक्त जो साक्ष्यवर्ग उसमें वह अविभक्त यानी साक्षीरूप से स्थित है; या ऐसा समझो कि विभक्त जो काल्पनिक प्रपंच उसमें वह अधिष्ठान रूप से ओतप्रोत है। इन्हीं सब कारणों से परमात्मा उरुराज यानी उडुराज है। वह स्वप्रकाश पूर्ण परब्रह्म परमात्मा, जो सबका महाकरण ओर स्वरूपतः कार्यकारणातीत है, ज्ञानियों के विवेकी अन्तःकरणरूप अरण्य में रमण करने के लिये आविर्भूत हुआ। यहाँ रमण का अर्थ है तत्पदार्थ के साथ त्वंपदार्थ का ऐक्य हो जाना। जो अन्तःकरण विवेकचन्द्र की शीतल सुकोमल अमृतमय किरणों से सुशोभित है उस अन्तःकरण रूप वृन्दारण्य में यह तत्पदार्थरूप भगवान् त्वंपद के अर्थभूत अनन्त जीवरूप व्रजांगनाओं के साथ रमण करने को अर्थात् अपने साथ उनका तादात्म्य स्थापित करने को प्रकट होता है, क्योंकि असली रमण तो यही है कि नायक और नायिका का देश, काल और वस्तुरूप व्यवधान से रहित सम्मिलन हो। यही पारमार्थिक रमण है। लौकिक रमण में तो कुछ न कुछ व्यवधान रहता ही है; क्योंकि जब तक द्वैत बना हुआ है तब तक उसमें विभाग भी रहता ही है। वे भगवान् रूप उडुराज सबके अभिलषित हैं, इसलिये ‘प्रियः’ हैं, क्योंकि वे सभी के अन्तरात्मा हैं। आत्मा नाम की वस्तु किसी को भी अप्रिय नहीं होती। संसार में सुख-प्राप्ति और दुःख-निवृत्ति के लिये जितनी चेष्टाएँ होती हैं, सब आत्मार्थ ही हैं। ऐसी स्थिति में अपने परप्रेमास्पद भगवान् के साथ कौन रमण करना न चाहेगा? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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