भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इस प्रकार यह विवेकरूप चन्द्र भक्ति तत्त्व का बाधक नहीं, परम साधक है। उस उडुराज का विशेषण है ‘ककुभः’-कं ब्रह्मात्मकं कुं कुत्सितं प्रकृतिप्राकृतात्मकं जगत भासयतीति ककुभः’ अर्थात् क-ब्रह्मस्वरूप सुख और कु-प्रकृति एवं प्राकृत पदार्थों से होने वाला कुत्सित जगत-इन दोनों को ही भासित करने वाला होने से यह ककुभ है। जिस समय जगत और परमानन्दमय परब्रह्म का विवेक होता है उस समय जागतिक सुख सर्वथा निःसार प्रतीत होने लगता है। ब्रह्मानन्द तो निरतिशय और त्रिकालाबाधित है, किन्तु प्राकृत सुख सातिशय और अनित्य है; अतः ब्रह्मानन्द की बाढ़ में उस प्राकृत सुख का तो विलीन हो जाना ही परम मंगल है। अथवा ‘के ब्रह्मणि कुषु कुत्सितेष्वपि भाति दीप्यते इति ककुभः’ अर्थात यह आत्मानात्म विवेक अथवा विवेक-चतुष्टय चाहे ब्रह्मा हो और चाहे कुत्सित-निम्नकोटि के प्राणियों में हो, दोनों ही की शोभा बढ़ाता है। वस्तुतः न्यूनता तो वहीं है जहाँ इसका अभाव है। ‘प्रियः’- यह भी ‘उडुराजः’ का ही विशेषण है; क्योंकि यह विवेकचन्द्र परप्रेमास्पद श्रीभगवान् की प्राप्ति करने वाला होने के कारण सभी को प्रिय है, तथा समस्त अनर्थों की निवृत्ति करने वाला होने से भी प्रिय है। इसी का विशेषण ‘दीर्घदर्शनः’ भी है। ‘दीर्घमनपबाध्यं दर्शनं यस्य अपौरुषेयत्वेन समस्तपुंदोषशंकाकलंकराहित्येनाप्रमाण्यशंकाशून्य-वेदजनितत्त्वात् असौ दीर्घदर्शनः’ अर्थात् अपौरूषेय होने के कारण जो पुरुषोचित दोषों के शंकारूप कलंक से रहित है, अतः जिसके अप्रामाण्य की कोई आशंका नहीं है उस वेद से उत्पन्न होने के कारण जिसका दर्शनज्ञान दीर्घ यानी अबाध्य है, वह विवेकचन्द्र दीर्घदर्शन है, क्योंकि विवेक वेद से होता है और वेद अपौरुषेय होने के कारण सब प्रकार के पुरुषोचित दोषों के शंकारूप कलंक से रहित है। अथवा इसका दर्शन दीर्घकाल में अनेकों जन्मों के पश्चात् होता है इसलिये यह दीर्घदर्शन है; जैसा कि श्रीभगवान् ने भी कहा है- “बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।” ऐसा जो विवेकचन्द्र है वह ‘चर्षणी’-अधिकारी पुरुषों के ‘शुचः’-शोकोपलक्षित विविध दुःखों को विचाररूप अपनी कल्याणमयी और सुखप्रद किरणों से मार्जन करता हुआ उदित हुआ क्योंकि मन की उच्छृंखल वृत्तियों का शमन करने के लिये लाखों उपाय एक ओर और विवेक एक ओर है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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