भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
उन मानसिक सन्तापों की शान्ति के लिये जो अन्य साधन हैं उनमें से बहुतों का तो अनुष्ठान ही असम्भव है तथा बिना विवेक के उनसे पूर्ण शान्ति भी नहीं होती। किन्तु यथार्थ विवेक तो एक क्षण में ही सभी विक्षों को शान्त कर देता है। हमारे चित्त में हर समय ऐसे विचारों का तुमुल युद्ध छिड़ा रहता है कि अमुक कार्य ठीक नहीं हुआ, अमुक पुरुष का व्यवहार उचित नहीं था, हमें अमुक समय तक अमुक कार्य अवश्य कर लेना चाहिये, हमें अमुक झंझट लगा ही हुआ है इत्यादि। यह विक्षेप किसी भी प्रकार की बाह्य सुविधाओं से निवृत्त नहीं हो सकता; किन्तु जिस समय ठीक-ठीक विवेक होता है उस समय इसका ढूंढ़ने पर भी पता नहीं लगता। आयुर्वेद में भी कई जगह शारीरिक रोगों के हेतु मानसिक रोग ही माने गये हैं। उन मानसिक रोगों की चिकित्सा तो औषधि आदि से हो ही नहीं सकती। कई स्थलों में तो कारण की चिकित्सा करने से ही कार्य की भी चिकित्सा हो जाती है; किन्तु जहाँ कार्य बहुत उग्र हो जाता है वहाँ पहले औषधि प्रयोग द्वारा कार्य को निर्बल करके पीछे कारण की चिकित्सा करते हैं। किन्तु यहाँ आध्यात्मिक राज्य में तो यदि शोक, मोह एवं ईर्ष्या आदि रोगों की चिकित्सा हो जाय तो बाह्य व्याधियों का आश्रयभूत शरीर ही प्राप्त न हो। अतः पूर्ण स्वास्थ्य तो उन मूलभूत रोगों की चिकित्सा होने से ही प्राप्त हो सकता है। इसी से पूर्वकाल में जब शत्रुओं से पराजित होने पर किसी राजा का राज्य छिन जाता था तो वह महर्षियों की ही शरण लेता था और वे उसे यही उपदेश करते थे-
अर्थात तुम जिस वस्तु को ऐसा मानते हो कि वह है उसे यही समझो कि वह है नहीं। ऐसा निश्चय रहने से बुद्धिमान् पुरुष कड़ी से कड़ी आपत्ति प्राप्त होने पर भी व्यथित नहीं होता। वस्तुतः आत्मा से भिन्न जितना भी प्रतीयमान जगत है, उसमें अस्तित्व-बुद्धिपूर्वक जो भले-बुरेपन का निश्चय करना है, वही सारे दुःखों का मूल है। यह प्रपंच तो अनन्त है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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