गोपिकाओं की प्रेमोपासना
जिन व्रजवासियों की चरण-धूलि के ब्रह्माजी चाहते हैं, उनका कितना बड़ा महत्त्व है! ये व्रजवासी गण मुक्ति के अधिकार को ठुकरा कर उससे बहुत आगे बढ़ गये हैं। इस बात को स्वयं ब्रह्माजी ने कहा है कि भगवन! मुक्ति तो कुचों में विष लगाकर मारने को आने वाली पूतना को ही आपने दे दी। इन प्रेमियों को क्या वही देंगे - इनका तो आपको ऋणी बनकर ही रहना होगा और भगवान ने स्वयं अपने श्री मुख से यह स्वीकार किया है। आप गोपियों से कहते हैं -
न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां
स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि व:।
या माभजन् दुर्जरगेश्रृङ्खला:
संवृश्च्य तद्व: प्रतियातु साधुना॥[1]
‘हे प्रियाओ! तुमने घर की बड़ी कठिन बेड़ियों को तोड़ कर मेरी सेवा की है। तुम्हारे इस साधु कार्य का मैं देवताओं के समान आयु में भी बदला नहीं चुका सकता। तुम ही अपनी उदारता से मुझे उऋण करना।’ महात्मा नन्ददासजी की रचना में भगवान कहते हैं -
- तब बोले ब्रजराज-कुँवर हौं रिनी तुम्हारो।
- अपने मनतें दूरि करौ किन दोष हमारो।।
- कोटि कलप लगि तुम प्रति प्रतिउपकार करौं जा।
- हे मनहरनी तरुनी, उरिनी नाहिं तबौं तौ।।
- सकल बिस्व अपबस करि सो माया सोहति है।
- प्रेममयी तुम्हरी माया सो मोहि मोहति है।।
- तुम जु करी सो कोउ न करै सुनि नवलकिसोरी।
- लोकबेद की सृदृढ़ सृंखला तृन सम तोरी।।
सारे संसार के देव, मनुष्य, गन्धर्व, असुर आदि जीवों को कर्मों की बेड़ी से निरन्तर बाँधे रखने वाले सच्चिदानन्द, जगन्नियन्ता प्रभु गोपी यशोदा के द्वारा ऊखल से बँध जाते हैं। सारे जगत को माया के खेल में सदा रमाने वाले माया पति हरि गोप-बालकों से खेल में हार कर, स्वयं घोड़े बन कर उन्हें अपनी पीठ पर चढ़ाते हैं। उन व्रजवासी नर-नारियों को धन्य है। एक दिन की बात है - यशोदाजी घर के आवश्यक काम में लग रही थीं, बाल-कृष्ण मचल गये और बोले, मैं गोद चढूँगा। माता ने कुछ ध्यान नहीं दिया। इस पर खीझ कर आप रोने और आँगन में लोटने लगे। इतने ही में देवर्षि नारद भगवान की बाल-लीलाओं को देखने की लालसा में वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने देखा, सचराचर विश्व के स्वामी परम आनन्दमय भगवान माता की गोद चढ़ने के लिये जमीन पर पड़े रो रहे हैं। इस दृश्य के देख कर देवर्षि गद्गद हो गये और यशोदा को पुकार कर कहने लगे -
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा. 10/32/22
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