गोपिकाओं की प्रेमोपासना
ता मन्मस्का मत्प्राणा मदर्थे त्यक्तदैहिका:।
ये त्यक्तलोकधर्माश्च मदर्थे तान् बिभर्म्यहम्॥[1]
न पारमेष्ठ्यं न महेंद्रधिष्ण्यं
न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम्।
न योगीसिद्धीरपुनर्भवं वा
मय्यार्पितात्मेच्छति मद्विनान्यत्॥[2]
‘हे उद्धव! गोपियों ने अपने मन और प्राण मुझमें अर्पण कर दिये हैं। मेरे लिये अपने सारे शारीरिक सम्बन्धों को और लोक सुख के साधनों को त्याग कर वे मुझमें ही अनुरक्त हो रही हैं। मैं ही उनके सुख और जीवन का आधार हूँ। इस प्रकार अपने आत्मा को मुझमें अर्पित करने वाला भक्त मुझे छोड़कर ब्रह्मा, इन्द्र, चक्रवर्ती के पद तथा पाताल आदि के राज्य और योग के आठों ऐश्वर्य आदि की तो बात ही क्या है, अपुनरावर्ती मोक्ष भी नहीं चाहता।’ ऐसे भक्तों के लिये भगवान् क्या कहते हैं, सुनिये -
‘उनकी चरण रज से अपने को पवित्र करने के लिये मैं सदा उनके पीछे-पीछे घूमा करता हूँ।’ इसी कारण गीत गोविन्दकार ने ‘देहि मे पदपल्लवमुदारम्’ कहकर भगवान के द्वारा श्री राधाजी के पद कमल की चाह करायी है और इसी आधार पर रसिक रसखान जी ने कहा है -
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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