गोपिकाओं की प्रेमोपासना
- प्रेमैव गोपरामाणां काम इत्यगमत् प्रथाम्।
- इत्युद्धवादयोऽप्येतं वाञ्छन्ति भगवत्प्रियाः।।
- निजेन्द्रिय-सुख-हेतु कामेर तात्पर्य,
- कृष्णसुख तात्पर्य गोपीभाववर्य।
- निजेन्द्रिय-सुख-वाञ्छा नहे गोपिकार,
- कृष्ण-सुख-हेतु करे संगम बिहार।।
- आत्म-सुख-दुःख गोपी ना करे विचार,
- कृष्ण-सुख-हेतु करे सब व्यवहार।
- कृष्ण बिना आर सब करि परित्याग,
- कृष्ण-सुख-हेतु करे शुद्ध अनुराग।।
अपना तन, मन, धन, रूप, यौवन और लोक-परलोक-सबको श्रीकृष्ण की सुख सामग्री समझकर श्रीकृष्ण सुख के लिये शुद्ध अनुराग करना ही पवित्र गोपी भाव है। इस गोपी भाव में मधुर रस की प्रधानता है। रस पाँच हैं - शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य और माधुर्य। लौकिक और ईश्वरीय दिव्य भेद से ये पाँचों रस दो प्रकार के हैं, अर्थात लौकिक प्रेम भी उपर्युक्त पाँच प्रकार का है और दिव्य प्रेम भी पाँच प्रकार का है। परंतु इन पाँचों में मधुर रस - कान्ता प्रेम सबसे ऊँचा है; क्योंकि इसमें शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य - ये चारों ही रस विद्यमान हैं। यह अधिक गुण सम्पन्न होने से अधिक स्वादिष्ट है, इसीलिये इसका नाम ‘मधुर’ है। इसी प्रकार दिव्य प्रेम में भी कान्ता प्रेम - मधुर रस ही सर्व प्रधान है। शान्त और दास्य रस में भगवान ऐश्वर्यशाली हैं, मैं दीन हूँ; भगवान स्वामी हैं, मैं सेवक हूँ - ऐसा भाव रहता है। इसमें कुछ अलगाव-सा है, भय है और संकोच है; परंतु सख्य, वात्सल्य और माधुर्य में क्रमशः भगवान अधिकाधिक निज जन हैं, अपने प्यारे हैं, प्रियतम हैं; इनमें भगवान ऐश्वर्य को भुला कर, विभूति को छिपा कर सखा, पुत्र या कान्त रूप से भक्त के सामने सदा प्रकट रहते हैं, इन रसों में प्रार्थना-कामना है ही नहीं। अपने निज-जन से प्रार्थना कैसी? उसका सब कुछ अपना ही तो है! इनमें भी कान्ता भाव सर्व प्रधान है। कान्ता भाव में पिछले दोनों रसों का - सख्य और वात्सल्य का पूर्ण समावेश है। यहाँ भगवान की सेवा खूब होती है, इतनी होती है कि सेवा करने वाला भक्त कभी थकता ही नहीं; क्योंकि यह मालिक की सेवा नहीं है, प्रियतम की सेवा है। प्रियतम के सुखी होने में ही अपार सुख है, जितना सुख पहुँचे, उतना ही थोड़ा; क्योंकि प्रियतम को जितना अधिक सुख पहुँचता है, उतना ही अपार सुख का अनुभव प्रियतमा को होता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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