गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
छठा अध्याय
ध्यानयोग
समं कार्यशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिर:। धड़, गर्दन और सिर एक सीध में अचल रखकर, स्थिर रहकर-इधर-उधर न देखता हुआ, अपने नासिकाग्र पर निगाह टिकाकार पूर्ण शांति से, निर्भय होकर, ब्रह्मचर्य में दृढ़ रहकर, मन को मारकर, मुझमें परायण हुआ योगी मेरा ध्यान धरता हुआ बैठे। टिप्पणी- नासिकाग्र से मतलब है भृकुटी के बीच का भाग।[1] ब्रह्मचारी व्रत का अर्थ केवल वीर्य-संग्रह ही नहीं है, बल्कि ब्रह्म को प्राप्त करने के लिए आवश्यक अहिंसादि सभी व्रत हैं। युजंन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानस:। इस प्रकार जिसका मन नियम में है ऐसा योगी आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ता है और मेरी प्राप्ति में मिलने वाली मोक्षरूपी परमशान्ति प्राप्त करता है। नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नत:। हे अर्जुन! यदि समत्वरूप योग न तो प्राप्त होता है ठूसंकर खाने वाले को, न उपवासी को, वैसी ही, वह बहुत सोने वाले या बहुत जागने वाले को प्राप्त नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ देखो अध्याय 5-27
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