महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
अर्जुन का वनवास
द्वारकापुरी तो दुल्हन जैसी सजी थी। सड़क के दोनों किनारे ऊंचे-ऊंचे मकानों के झरोखे, और दरवाजे दर्शनार्थियों से भरे पड़े थे। सेना ने नगर के फाटक पर सलामी दी और नगर में प्रवेश करने पर तो खुले रथ पर खड़े अर्जुन और श्रीकृष्ण पर इतने फूल बरसे कि केवल अर्जुन और श्रीकृष्ण ही नहीं बल्कि उनका रथ, सारथी और घोड़े भी फूलों की पंखुड़ियों में रंग-बिरंगे हो उठे थे। यह स्वागत कृष्ण के ममेरे भाई का नहीं बल्कि हस्तिनापुर के श्रेष्ठ कुरुवंश के पाण्डव कुलभूषण महावीर अर्जुन का था। बहरहाल अर्जुन अपने बारह वर्षीय वनवास के इस अन्तिम दौर में द्वारका आकर इतने संतुष्ट हुए कि मन की सारी थकान उतर गई। वृष्णि, भोज और अन्धक, इन तीनों वंशों के यादवों ने अर्जुन को बड़ा ही मान और प्यार दिया। भोज तो कुन्ती माता के जाति बन्धु ही थे, अर्जुन को भला क्यों न सराहते। पर कृष्ण उन्हें उनसे भी अधिक मान दे रहे थे। उसका कारण श्रीकृष्ण और अर्जुन की मित्रता थी। कृष्ण के बड़े भाई बलराम और उनके बूढ़े पिता वासुदेव ने भी उन्हें वैसा ही मान दिया कि मानो सगी बहन का बेटा घर आया हो। अर्जुन ने श्रीकृष्ण की सलाह पर अपने वनवास के यह अन्तिम दो-डेढ़ वर्ष यहीं बिताने का निश्चय किया। कुछ ही दिनों बाद रैवतक पर्वत पर यादवों का वार्षिक उत्सव होने वाला था। वहाँ मेले-तमाशे और तरह-तरह के मनोरंजनों की मौज-बहार रहती थी। श्रीकृष्ण ने इस मेले का लालच दिया। फिर आस-पास की दो-एक और जगहों को घुमाने का प्रस्ताव किया। यही सब दोस्तों का आपसी मान-मनौवल की बातें हुई और अर्जुन ने अपने वनवास का शेष समय वहीं बिताने का निश्चय किया। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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