भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यदि आध्यात्मिक पक्ष में देखें तो इसका तात्पर्य इस प्रकार होगा- “यदा यस्मिन्नेव काले भगवान जनानां हृदयारण्ये रन्तुं मनश्चक्रे तदैव उडुराजः मोहनैशतमोव्याप्तान्तःकरणारण्याकाशे किंचित्प्रकाशनशीलशमदमादिरूपेषु यः आह्लादप्रकाशात्मिकया भक्तिप्रभया राजते स भजनानन्दचन्द्रः उदगात्।” अर्थात जिस समय भगवान ने भक्तों के हृदयरूप वन में विहार करने की इच्छा की उसी समय उडुराज-जो मोहरूप घोर अन्धकार से व्याप्त अन्तःकरणरूप आकाश में कुछ-कुछ प्रकाशित होने वाले शमदमादिरूप उडुओं (नक्षत्रों) में आह्लाद एवं प्रकाशात्मिका भक्तिरूप प्रभा से सुशोभित है, वह भजनानन्दरूप चन्द्र उदित हुआ। इससे सिद्ध होता है कि जिस समय भगवान अपने भक्त के हृदय में रमण करने की इच्छा करते हैं तभी यह भजनानन्द चन्द्र उदित हो जाता है। वह क्या करता हुआ उदित हुआ?- “चर्षणीनां गतिभक्षणशीलानां कर्मतत्फलव्यासक्तमनसां जनानां शुचः आर्तीः स्वात्मभूतपरप्रेमास्पदभगवद्विप्रयोगवेदनाः ताः मृजन्।” अर्थात वह चर्षणी यानी कर्म और कर्मफल भोग में आसक्त चित्त पुरुषों के शोक-अपने आत्मभूत परप्रेमास्पद भगवान के वियोग से होने वाली वेदना का मार्जन करता हुआ उदित हुआ। अथवा कर्म और कर्म-फल भोगजनित श्रान्ति ही आर्ति है या जितनी भी वेदनाएँ सम्भव हैं वे सभी आर्ति हैं, उन सभी का मार्जन करते हुए भगवान उदित हुए। यहाँ ‘शुचः’ में बहुवचन है; इसलिये यह शोकोपलक्षित समस्त संसार का भी उपलक्षण है। किसके द्वारा शोक मार्जन करता हुआ उदित हुआ?- “शन्तमैः करैः-स्वयं शन्तमाः परमसुखरूपाः अन्येषु कराः कं सुखं रान्ति समर्पयन्तीति कराः तैः भगवदीयगुणगणगानतानवितानादिभिः।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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