भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
जिस समय महाराज परीक्षित गंगा के तट पर आकर बैठे उस समय बहुत से ऋषि, मुनि, सिद्ध एवं योगीन्द्रगण उनके पास आये। उन सबसे उन्होंने यही प्रश्न किया कि ‘भगवन! मैं मरणासन्न हूँ; अतः मुमूर्षु पुरुष के लिये जो एकमात्र कर्तव्य हो वह मुझे बतलाइये।’ इस विषय में उस मुनीन्द्र-मण्डली में विचार हो रहा था; भिन्न-भिन्न महानुभाव अपने भिन्न-भिन्न मत प्रकट कर रहे थे; अभी कुछ निश्चय नहीं हो पाया था कि इतने में शुकदेव जी आ गये। उनसे भी यही प्रश्न हुआ। राजा ने पूछा, ‘भगवन! अब मेरी मृत्यु में केवल सात दिन शेष हैं; अतः कोई ऐसा कृत्य बतलाइये जिसके करने से मैं धीरों की प्राप्तव्य गति को प्राप्त कर सकूँ।’ तब श्री शुकदेव जी बोले, ‘राजन! अन्य अनात्मज्ञ लोगों के लिये तो सहस्रों साधन हैं, परन्तु भक्तों के लिये तो एकमात्र श्रीहरिश्रवण ही परमावलम्ब है।’ इसके तीन भेद हैं- श्रीहरि का स्वरूपश्रवण, गुणश्रवण और नामश्रवण। इसी प्रकार श्रीहरि-कीर्तन भी तीन प्रकार का है- स्वरूपकीर्तन, गुणकीर्तन और नामकीर्तन। उपनिषदादि से भगवान का स्वरूपकीर्तन होता है, इतिहास-पुराणादि से रूपगुण कीर्तन होता है और विष्णुसहस्र-नामादि से नामकीर्तन होता है। कर्मकाण्ड भी भगवान का ही स्वरूप है- “यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।” कर्म ही क्या, यह सारा प्रपंच एकमात्र भगवान ही तो है; भूत, भविष्यत्, वर्तमान जो कुछ है भगवान से भिन्न नहीं है- “पुरुष एवेदग्वं सर्व यत्किंच भूतं यच्च भाव्यम्।” श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराण सबके आदि, अन्त और मध्य में श्रीहरि का ही कीर्तन किया गया है- “वेदे रामायणे चैव पुराणे भारते तथा। इस प्रकार श्रीशुकदेव जी ने भगवच्छ्रवण ही उस समय मुख्य कर्तव्य बतलाया और इसीके लिये श्रीमद्भागवत श्रवण कराया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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