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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
सर्वसिद्धान्त-समन्वय
महर्षि लोगों ने भी जिस विषय के अन्वेषण में समाधि द्वारा असाधारण प्रयत्न किये हैं उस विषय में उनकी असाधारण मान्यता होती है। जैसे महर्षि पाणिनि की शाब्दिकी व्यवस्था में, जिन विषयों में प्राधान्य नहीं उन विषयों में विरोध अनिवार्य है। अस्तु, उत्तरमीमांसा के द्वैत सिद्धान्तपरक भाष्यकार “भक्त्या मामभिजानाति यावान् यश्चास्मि तत्त्वतः।” इत्यादि भगवद्वाक्यानुसार परमतत्त्व साक्षात्कार का असाधारण कारण भगद्भक्ति एवं तदुपयुक्त अनन्त कल्याणगुण-गणाश्रय उपास्य स्वरूप तद्भिन्न उपासक स्वरूप निर्णय करते हैं। विशिष्टाद्वैतियों ने परमेश्वर के साथ जीव का कुछ असाधारण सम्बन्धपूर्वक भक्ति के आधिक्य एवं अद्वैतवादिनी श्रुतियों का निरादर हटाने का प्रयत्न किया। द्वैताऽद्वैतवादियों ने “अन्योऽसावहमन्योस्मि, न स वेद” इत्यादि श्रुतियों के अनुसार उपासना में उपास्योपासक के अभेद ज्ञान की आवश्यकता समझते हुए भेदाभेद का बराबर आदर सिद्ध किया। शुद्धाऽद्वैतियों ने भगवत् तत्त्व से व्यतिरिक्त तत्त्व मानने में वस्तु की पूर्णता में बाधा समझकर शुद्धाऽद्वैत तत्त्व का स्थापन किया। यद्यपि शुद्धाऽद्वैत सिद्धान्त में उक्त भगवदीय आत्मवैभव से ही एक का बहुभवन सिद्ध होने से लौकिक-वैदिक समस्त व्यवस्था सूपपन्न है तथापि “अजायमानो बहुधा व्यजायत”, “इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते” इत्यादि श्रुतियों से अजायमान का जायमानत्व, एक का बहुत्व माया से ही सिद्ध है। क्योंकि परमार्थतः एक ही वस्तु का अजत्व, जायमानत्व एकत्व-बहुत्व असम्भव है। इस वास्ते वस्तुतः सबाह्याभ्यन्तर अज सजातीत-विजातीत-स्वगतभेदशून्य स्वप्रकाशप्रज्ञानानन्द धन में ही अचिन्त्याऽनिर्वाच्य स्वात्मशक्ति के अनिर्वाच्य सम्बन्ध से ही जायमानत्व, बहुत्व स्वीकार करना चाहिये। इसी वास्ते अद्वैतवादी अनिर्वचनीयवादी भी कहलाते हैं। वेदान्तियों की ब्रह्ममीमांसा का भिन्न-भिन्न भाष्यकार भिन्न-भिन्न अर्थ करते हैं। परन्तु उसका मुख्य तात्पर्य किसमें है यह निर्णय करना कठिन हो जाता है। कहना न होगा कि महर्षियों के अभिप्रायों का ज्ञान महर्षियों को ही होता है। शुक्रनीतिसार में शुक्राचार्य के मन्तव्यानुसार वेदान्त का अद्वैत में ही मुख्य तात्पर्य है। “ब्रह्मैकमद्वितीयं स्यान्नेह नानास्ति किंचन, मायिकं सर्वमज्ञानाद्भाति वेदान्तिनां मतम्।” (चतुर्थाध्याये तृतीये प्रकरणे) सर्वभेद विवर्ज्जित ब्रह्म ही सब कुछ है, नाना कुछ भी नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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