भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
व्रज-भूमि
श्रीमत्प्रबोधानन्द सरस्वती प्रभूति महानुभाव तो वृन्दावन धाम बहिर्भूत अनन्त चिन्तामणियों की ही नहीं वरंच श्रीहरि की भी उपेक्षा करने की सलाह देते हैं-
“विपिन-राज सीमा के बाहर हरिहूँ को न निहारौ” आदि। वेदान्तवेद्य परिपूर्ण सच्चिदानन्दघन परब्रह्म निरतिशय होने के कारण, तारतम्यविहीन होने पर भी वृन्दावन धाम में जैसा मधुर अनुभूयमान होता है वैसा और स्थलों में नहीं। अत: भावुकों ने- “व्रजे वने निकुंजे च श्रैष्ठ्यमत्रोत्तरोत्तरम्।” के अनुसार द्वारकास्थ, मथुरास्थ श्रीकृष्ण-व्यतिरिक्त श्रीकृष्ण में भी व्रजस्थ-वृन्दावनस्थ-निकुंजस्थ भेद से तारतम्य स्वीकृत किया है। अभिप्राय यह है कि जैसे एक ही प्रकार का स्वाति-बिन्दु स्थलवैचित्र्य से विचित्र परिणाम वाला होता है, शुक्तिका में पड़कर मोती के रूप से, बाँस में वंशलोचनरूप से, गोकर्ण में गोरोचनरूप से, गजकर्ण में गजमुक्तारूप से परिणत होता है, वैसे ही वेदान्तवेद्य तत्त्व एकरूप होता हुआ भी अभिव्यंजक स्थल की स्वच्छता के तारतम्य से, अभिव्यक्ति-तारतम्य होने से, तारतम्योपेत होता है। जैसे सूर्यतत्त्व की अभिव्यक्ति काष्ट-कुड्य आदि अस्वच्छ पदार्थों पर वैसी नहीं होती, जैसी निर्मल जल, काँच आदि पर होती है, वैसे ही राजस-तामस स्थलों में ब्रह्मतत्त्व की अभिव्यक्ति वैसी नहीं हो सकती, जैसी निर्मल विशुद्ध स्थलों में। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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