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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
शिवलिंगोपासना-रहस्य
शिवलिंग के मस्तक रूप से गिरती हुई केतकी ने कहा कि ‘मैं दश कल्प से चलते यहाँ तक पहुँती हूँ, अभी कुछ ठिकाना नहीं कि कितना जाना पड़ेगा।’ इससे शिविलिंग की अनन्तता मालूम पड़ती है। दिव्यवाणी से भगवान ने ब्रह्मा, विष्णु दोनों ही को प्रबोध कराया। अन्यत्र पृथ्वी को पीठ और आकाश को लिंग कहा है। जैसे वेदी पर लिंग विराजता है वैसे ही पृथ्वी पर आकाश है। जैसे ब्रह्म का एक देश ही प्रकृति-संस्पृष्ट है, वैसे ही आकाशलिंग का भी एक देश ही पृथ्वी संस्पृष्ट हैं। इसीलिये कहीं लिंग ठीक पुरुष के जननेन्द्रिय के समान ही होता है, कहीं ब्रह्माण्ड के आकार का, कहीं पिण्ड के आकार का। केदारेश्वर की नित्यसिद्ध स्वयम्भू मूर्ति कहीं भी लिंग के आकार की नहीं हैं। वही कारणावस्था या पिण्डावस्था का चिह्न ही लिंग समझना चाहिये। वस्तु दृष्टि से फिर भी वह लिंग ही है। आधुनिक वैज्ञानिकों की भी दृष्टि से आकाश वक्र है जैसा कि लिंग का स्वरूप है किंबहुना देश, काल, वस्तु सभी वक्र हैं, ब्रह्म को भी वक्र और स्तब्ध कहा है। फिर उससे उत्पन्न सबको वक्र होना ही चाहिये। अनन्तकोटि विश्व सब लिंगमय ही है। विश्वों से परे सगुण ब्रह्म का भी लिंग ही आकार है। शिवशक्ति के सहवास में अवकाश न मिलने से शुक्राचार्य ने उन्हे शाप दिया कि तुम योनिस्थ लिंग के रूप में पूजित होगे। एक बार शंकर दिगम्बर वेश से स्वलिंग अपने हस्त में लेकर दारुकवन में गये। उन्हें देखकर ऋषि पत्नियाँ मोहित हो गयीं। यह देखकर ऋषियों ने शंकर को शाप दिया कि तुम्हारा लिंग गिर जाय। ऐसा ही हुआ, किन्तु लिंग के पृथ्वी पर गिरते ही वह प्रज्वलित होकर अपने तेज से लोक को जलाने लगा। अन्त में शिवा ने उसे योनि में स्थापित किया और सब ऋषियों और देवताओं ने उसकी पूजा की। यहाँ लिंग योनि दिव्य प्रकृति और परम पुरुष ही है। शिव शक्तिरूप लिंग-योनि को प्राकृत स्त्री-पुरुष के समान चर्मखण्ड मूत्रेन्दिय मात्र मान लेना बड़ा अपराध होगा। वही यह भी कथा है कि मुनियों के शाप से गिरा शिवलिंग अग्नि के समान जाज्वल्यमान होकर भूमि, स्वर्ग एवं पाताल में फिरा, सभी लोक बड़े दुःखी हुए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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