भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चीरहरण
याज्ञिक लोग उनकी स्मृति और नामोक्ति से ही कर्मच्छिद्र दूर किया करते हैं।
श्रीकृष्ण उनके हितकारी परमानन्दरस स्वरूप हैं, और योगेश्वरेश्वर हैं। अतः अन्तःस्थित सब प्रकार के दोषों के निकालने में समर्थ हैं। योगेश्वर लोग योगबल से अन्तःप्रविष्ट होकर, दोष को दूर करते हैं, फिर योगेश्वरेश्वर की तो बात ही क्या है? कुछ महानुभावों ने “योगेश्वरेश्वर” इस शब्द में से यह अभिप्राय निकाला है कि भगवान योगेश्वरों के भी ईश्वर हैं, अतएव उन अपरिगणित व्रजकुमारिकाओं में प्रत्येक का मनोरथ पूर्ण कर सके, और व्रजकुमारिकाओं ने नेत्रों के सामने रखे हुए सभी वस्त्रों के चुराने में समर्थ हुए। प्राण त्याग से भी अधिक दुष्कर जिनका लज्जात्याग था, उन कुल-कुमारियों को जल से निकालकर, निरावरण रूप से नमन कराने का सामर्थ्य भी उन्हीं में था, फिर निर्जन प्रदेश में उनके निरावण सर्वांग का दर्शन करने पर भी, अत्यन्त स्वाधीन परम सुन्दरियों का संभोग आदि न करना भी योगेश्वरेश्वर श्री भगवान का ही कार्य है।
समग्र ऐश्वर्य, सम्पूर्ण धर्म, सम्पूर्ण यश, सम्पूर्ण श्री एवं सम्पूर्ण ज्ञान, वैराग्य जिनमें विद्यमान हों, उन्हें भगवान कहा जाता है। भिन्न-भिन्न साधकों में भगवान की कृपा से भगवान का ही कुछ (असमग्र या असम्पूर्ण) ऐश्वर्य एवं धर्म प्राप्त होता है। यही स्थिति ज्ञान-वैराग्य की भी है। साधारण धर्मात्मा पुरुष भी नग्न कुमारी को या परस्त्री को देखने के लिये उत्सुक नहीं होते। सम्पूर्ण रूप से धर्म जिसमें विराजमान है, उनकी ऐसी उत्सुकता क्यों होगी? कोई भी वैराग्यवान एवं ज्ञानवान, मायामय विषयों के प्रलोभन में नहीं फँसता, फिर सम्पूर्ण वैराग्य, ज्ञानसम्पनन भगवान व्रजकुमारिकाओं के सुन्दर निरावरण अंगमात्र देखने के लिये ऐसा कैसे कर सकते थे? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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