भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
निर्बल का बल
इतना ही नहीं, विशेषतः ऐसे ही तृष्णारहित महामुनीन्द्र ही भगवान के गुणगान के अधिकारी ही माने गये हैं, क्योंकि जिसका मन निरन्तर भगवत्स्वरूपा-मृतरसास्वादन में लगा रहता है, वही उस रस का वितरण कर सकता है। जिस समय राजर्षि परीक्षित ने ब्रह्मा के वत्सहरण-सम्बन्ध में कुछ पूछा, उस समय ब्रह्मर्षि शुकदेव का मन प्रश्न द्वारा हृदय में अभिव्यक्त भगवान के स्वरूप-गुण-लीलारस में लीन हो गया। फिर बड़ी कठिनाई से जब घण्टा, शंख-निनाद आदि से वे सावधान किये गये तब कथा चली- “इत्थं स्म पृष्टः स तु बादरायणिस्तत्स्मारितानन्तहृताखिलेन्द्रियः। “निवृत्ततर्षैरूपगीयमानाद् भवौषधाच्छोत्रमनोऽभिरामात्। “सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु विषई, लहहिं भक्ति गति सम्पति नितई।” अर्थात भगवान का चरित्र सुनने से विमुक्त को भक्ति, मुमुक्षु को गति और विषयी को सम्पत्ति मिलती है। इसके साथ-ही-साथ श्रवण और मन को प्रसन्नता भी मिलती है- “विषयिन कहँ पुनि हरि-गुणग्रामा, श्रवनसुखद अरु मन बिश्रामा।” पूर्णपरमात्मरति ब्रह्मनिष्ठ का भगवद्भजन स्वाभाविक कर्म हो जाता है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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