भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
निर्बल का बल
“अद्वेष्टत्वादिवत्तेषां स्वभावो भजनं हरेः।” अमानित्व, अदम्भित्व आदि गुणगण जैसे स्वभाव से ही ज्ञानी में होते हैं, वैसे ही भगवद्भजन, भगवत्परायणता भी ज्ञानी में स्वाभाविक होती है। इसके सिवा भगवत्कृपा से ही प्रत्यक्चैतन्याभिन्न परमात्मतत्त्व में स्थिति होती है, अतः कृतघ्नता-निवृतत्त्यर्थ भी ज्ञानी भगवान को भजता है। सभी वेदान्ताचार्यों ने कहा है- “यावज्जीवं त्रयो वन्द्या वेदान्तो गुरुरीश्वरः। अर्थात् ज्ञानी को यावज्जीवन वेदान्त, गुरु और ईश्वर की वन्दना करते रहना चाहिये। प्रथम ब्रह्मविद्या प्राप्ति के लिये इन सबका वन्दन होता है, पश्चात कृतघ्नता दूर करने के लिये। विवेकियों ने ज्ञानी के लिये अभेदभाव से ब्रह्मात्मनिष्ठा या भेदभाव से भगवद्भक्ति को समान ही कहा है। जैसे प्रेयसी प्रेमोद्रेक में प्रियतम के वक्षःस्थल पर विहरण करे, अथवा सावधानी से पादयुग्म की परिचर्या करे, दोनों एक ही से हैं। तथापि जैसे चित्त मिल जाने पर भी चतुर नायिका अपने प्रियतम को घूँघट-पट की ओट से ही देखती है, वैसे ही भेदभाव के मिट जाने पर भी ज्ञानी भेदभाव से भगवान को भजते हैं। पारमार्थिक तत्त्व जानकर, व्यावहारिक द्वैत को लैकर भगवान की भक्ति मुक्ति से भी अत्यन्त श्रेष्ठ है और भक्त्यर्थ भावित द्वैत अद्वैत से भी श्रेष्ठ होता है। यह स्थिति लोकसंग्रहनिरपेक्ष पूर्ण परमात्मनिष्ठ विज्ञानी की है। परन्तु, लोकसंग्रही ज्ञानी को तो लौकिक, वैदिक, धार्मिक, नैतिक अनेक प्रकार के कर्म करने पड़ते हैं और उनमें अनेक प्रकार की विषम परिस्थितियों का भी अनुभव करना पड़ता है। अनेक प्रकार के तापों का भी योग उपस्थित होता है, अतः उन लोकसंग्रहियों को यह परम आवश्यक होता है कि वे विनश्वर विषम प्रपंच के भीतर सम अविनश्वर परमात्मतत्त्व का स्मरण रखें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज