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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
माँ के श्री चरणों में
इन्द्र ने कहा-“राजन! मन ही मुख्य वस्तु है। उसके रहने पर सहस्रों देह उत्पन्न होते रहते हैं। उसके नष्ट होने पर कुछ भी नहीं रह जाता। अंकुर रहने से ही पल्लवादि होते हैं, अंकुर न रहने पर पल्लवादि नहीं होते। राजन! दिशाओं-विदिशाओं में मैं उसी हरिणाक्षि को ही देखता हूँ। मेरा मन तन्मय होने से अन्य दुःखादि मुझे कुछ भी प्रतीत नहीं होता।” राजा ने अपने समीप विराजमान भरत मुनि से अनुरोध किया कि वे इन दुर्मतियों को शाप देकर नष्ट कर दें। भरत मुनि ने भी विचार कर उन्हें शाप दे दिया कि “तुम दोनों ही विनष्ट हो जाओ।” शाप सुनकर इन्द्र और अहल्या ने कहा- “आपके इस शाप से हम लोगों का कुछ भी नहीं बिगड़ेगा। केवल आपकी तपस्या का मात्र क्षय हो गया।” घनस्नेह से दोनों का ही मन सम्बद्ध था। उसी घनस्नेह से सम्बद्धमनस्क दोनों की देह नष्ट हो गयी और दोनों ही मृगयोनि में उत्पन्न हुए। वहाँ भी दोनों ही परस्पर प्रेमासक्त थे। अनन्तर विहंग हुए। वहाँ भी वही लोकोत्तर अनुरागोद्रेक हुआ। पुनः दोनों ही परम तपस्वी ब्राह्मण-दम्पती हुए। उनके अकृत्रिम प्रेम-रसानुविद्धस्नेह को देखकर वृक्ष भी रसानु-विद्ध होकर श्रृंगारचेष्टाकुलित होते हैं-
इस तरह चित्त की कल्पना ही संसार है। चित्ताकाश, महाकाश, चिदाकाश ये तीनों ही अनन्त हैं। चिदाकाश में ही दोनों का पर्यवसान होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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