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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
माँ के श्री चरणों में
वस्तुतः दृढ़ निश्चयवाले मन को भिन्न करने की शक्ति किसी में नहीं है। शरीर भले ही वृद्धि को प्राप्त हो, भले कभी कण-कण विदीर्ण हो जाय, दृढ़ निश्चय-वाला मन भावित अर्थ में स्थिर ही रहता है। अभीष्ट अर्थ में आविष्ट मन को बाधा पहुँचाने में शरीरस्थ भाव समर्थ नहीं होते। तीव्र वेग से जिस भाव का चिन्तन करता है उसे ही देखने लगता है। वर-शापादि कोई भी क्रिया उस मन को विचलित नहीं कर सकती। जैसे मृग महापर्वत को विचलित नहीं कर सकते, वैसे ही तीव्र वेग से भावित अर्थ से मन को कोई भी शक्तियाँ विचलित नहीं कर सकती। महोत्सेध देवागार में भगवती के समान यह असितापांगी मेरे मनःकोश में प्रतिष्ठित है, अतः जीवनाधिका प्रियतमा से रक्षित होने के कारण मुझे कोई भी दुःख नहीं व्यापते। जैसे मेघमाला से प्रावृत पर्वत में ग्रीष्म, दावाग्नि का दाह नहीं व्यापता, वैसे ही प्रिया से प्याप्त मन में कोई कष्ट नहीं व्यापता। जहाँ-जहाँ होता रहता हूँ, निपतित होता हूँ, वहाँ प्रिय-संगम से भिन्न मुझे कुछ भी अनुभूत नहीं होता। धीर प्राणी के मेरुतुल्य एकनिष्ठ मन को वर-शाप आदि से भी विचलित नहीं किया जा सकता-
वर-शाप से देह में अन्यथात्व हो सकता है, परन्तु विजिगीषु मन पर उनका प्रभाव नहीं पड़ता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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