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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
माँ के श्री चरणों में
जिस प्रकार आकाश में गन्धर्व मगर आदि की प्रतीति हो तो है, इसी प्रकार दुर्दृष्टियुक्त प्राणियों को जगत प्रतिभासित होता है। यह विश्व दीर्घ स्वप्न, दीर्घ मनोराज्य अथवा दीर्घ चित्तविभ्रममात्र है। अहन्तादियुक्त दुरन्त विश्व हिरण्यगर्भ का एक क्षुद्र स्वप्न ही तो है। चैत्यवर्जित चिन्मात्रस्वरूप ही परमाकाश पूर्णरूप से आतत व्याप्त है। वही सर्वात्मा एवं सर्वशक्ति है। जैसे स्वप्न का द्रष्टा स्वप्नपुर में जिन नर-नागादि पदार्थों को जिस प्रकार जानता है, वे तत्क्षण ही उसी प्रकार उत्पन्न होते हैं। द्रष्टा का चित्स्वरूप ही स्वप्नाकाश में स्थित है। स्वाप्निक विविध-व्यवहारनिरत प्राणियों में जैसे परस्पर सत्यत्त्व-बुद्धि उत्पन्न होती है, वैसे ही व्यावहारिक प्रपंचों में भी परस्पर सत्यत्त्व-बुद्धि होती है, स्वप्नस्त्री-संगम के तुल्य मिथ्या प्रपंच में हो में हो कार्यकारिता भी दृष्टिगोचर होती है। माँ! संसार के घोर से घोर संग्राम, घोर से घोर राष्ट्रविप्लव, भूधर, सागर गगन एवं भीषण कान्तार, पुर, नगर, पत्तन, ग्रामादि की सृष्टि एवं सूर्य, चन्द्र, तारक, हिमालय, समुद्र आदि का महाप्रलयादि सभी तो चित्स्वरूपिणो आपके ही एक कोण में दर्पणस्थ प्रतिबिम्ब के तुल्य भासित होता है और फिर भी सबका सब स्वप्न के तुल्य अत्यन्त असत् है। नाशोत्पादविवर्जित शुद्ध चिद्रूप आप ही इसका अधिष्ठान भी हैं और मेरी माँ! मुझे तो यही प्रतीत होता है कि चाहे घनघोर विपत्तियाँ क्यों न आयें, माँ! यदि आपका अनुग्रह हो, तो फिर क्या चिन्ता?" माँ! मुझे मालूम भी हो और चिन्ता भी हो, तो भी मुझसे क्या बनने वाला है? जिससे सब कुछ बन सकता है, उसे ही मालूम होना चाहिए। करुणामयि! दीनवत्सले! आप जो ठीक समझती हैं, वही ठीक है। परन्तु, माँ! यद्यपि सभी सन्तान आपके ही हैं, तथापि दुःखी एवं दीन सन्तानों पर अम्बा की कृपा मुख्य रूप से होती है। माँ! मुझे तो ईर्ष्या होती है, मेरे सेवकों की, क्योंकि जितनी कृपा आप मेरे सेवकों पर करती हैं, उतनी मेरे पर नहीं करतीं। मेरी माँ! सचमुच में विचार करता हूँ तो मेरे समान कोई पातकी नहीं है। किन्तु आपके समान पापध्नी भी कौन हैॽ किन्तु माँ ǃ भूमि में जिनका स्खलन होता है, उनका अवलम्बन सिवा भूमि के और क्या हो सकात है? उसी तरह माँ! चिन्मयी माँ! मैं और मेरा जो कुछ भी है, सब तुम्हारे में ही है, तुम्हारा ही परिणाम, तुम्हारा विवर्त, तुम्हारा ही स्वरूप सब कुछ है। माँ! तुम्हारे प्रति होने वाले अपराधों के होने पर भी आपके सिवा और कौन सहारा है? माँ! यह भी ठीक है कि अधिकांश समय मायाजाल में, संसार की भूल-भूलैया में ही बीतता जा रहा है। जब घोर विपद्ग्रस्त होता हूँ, तभी तो आपको पुकारता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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