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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
श्रीराधा का कभी उनसे वियोग नहीं, अतः यह मालती वियोग-दुःखानभिज्ञा होने से मानो हमारी उपेक्षा कर रही है। मल्लिका मल्ल है अवयव जिनके, उन श्रीकृष्ण को आनन्द देने वाली यह है। यह अद्भुतता है इस वृन्दावन लता की कि इसे देखकर श्रीश्यामसुन्दर इसके पास खड़े हो जाते हैं और अपनी प्रिया को इसकी सुन्दरता बतलाने लगते हैं- ‘देखो, कैसी है यह।’ ‘जाती’ (जनयति आनन्दमिति जाती) श्रीमोहन मे प्रेम उत्पन्न करने वाली है। ‘यूथिका’ यह स्वयं भी यूथ के साथ रहती है और श्रीनन्दनन्दन को, व्रजांगनाओं के साथी श्रीनन्दनन्दन को यूथ सहित देखती हैं यों व्रजांगना उन लताओं की स्तुति आदि करती हुईं उनसे अपने प्राणधन का पता पूछती हैं। इस प्रसंग में ‘मालती’ आदि पर कुछ और भी भाव हैं। हे “मालति! आप-मा-नित्यानपायिनी जो लक्ष्मी भगवान के वक्ष पर सदा निवास करती हैं,- उनकी लता हो, अतः आपको हमारे प्राणवल्लभ का अवश्य पता है, कृपा कर बतलाओ।” जब बहुत अनुनय-विनय से पूछने पर भी मालती कुछ नहीं बोलती, तब उन्मादवती व्रजयुवतियों को उससे ईर्ष्या होती है। वे उससे कहती हैं- “आखिर मालति! तुम लक्ष्मी-पक्षपातिनी हो, वह हमें सौत समझती है। ऐसी दशा में तुम हमारा प्रिय कैसे कर सकती हो?” चन्द्रावली पक्ष की गोपांगना भी इसी का समर्थन करती है। इस तरह व्रजांगनाओं में प्रशंसा, असूया आदि उदय हो रही है। सहसा फिर मल्लिका पर दृष्टि पड़ी- “अहो, ‘मल्लिके’ श्रीकृष्ण को ‘का’ सुख पहुँचाने वाली यह लता है। इसके मकरन्द, कुसुम आदि उनको बहुत प्रिय हैं! देखो सखि! अनन्तकोटि ब्रह्माण्डाधिपति को भी यह आनन्दित करने वाली है, बड़ी सौभाग्यशालिनी है यह। अच्छा, सखि, मल्लिके! श्रीश्यामसुन्दर का पता बता कर हमें भी थोड़ा सुख दो।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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