भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
जिस प्रकार नील-पीत-हरित आदि रूपों का अवभासक सौर आलोक एक ही है किन्तु उसके प्रकाश्य भिन्न हैं उसी प्रकार दृश्य अनेक हैं और द्रष्टा एक ही है। किन्तु नील-पीतादि दृश्यों को प्रकाशित करते समय उनका अवभासक सौर आलोक तद्रूप हो जाता है; उन नील-पीतादि की सन्धि में जो उसका निर्विशेष रूप रहता है वही उसका शुद्ध स्वरूप है। इसी बात को पंचदशीकार ने एक अन्य दृष्टान्त द्वारा इस प्रकार स्पष्ट किया हैः-
एक स्थान पर कई दर्पण रखे हुए हैं। उनमें सूर्य की किरणें पड़कर फिर समीपस्थ भित्ति पर प्रतिफलित हो रही हैं। वे दर्पणालोक और उनकी सन्धियाँ ये दोनों ही सौर आलोक से प्रकाशित हैं; किन्तु सन्धियाँ केवल सौरालोक से प्रकाशित हैं और दर्पणालोक दर्पण में पड़े हुए सौरालोक के आभास से भी प्रकाशित हैं। इसी प्रकार विषयों की स्फूर्ति तो चेतन तथा अन्तःकरणस्थ चिदाभास दोनों के योग से होती है, किन्तु उन विषयों की सन्धि अर्थात, निर्विषय स्थिति केवल चेतन से ही भासित होती है। अतः आत्म साक्षात्कार करने के लिये पहले हमें शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गन्धादि की वासनाओं से वासित अन्तःकरण द्वारा विषयों से हटाकर इन्द्रियों को स्वाधीन करना होगा। फिर बुद्धि से मन का और अहंकार से बुद्धि का संयम करना होगा। तत्पश्चात् अपने स्वरूपभूत साक्षी से अहंकार को पृथक् निश्चय करने पर हम अपने शुद्ध स्वरूप का बोध प्राप्त कर सकेंगे। सबसे पहले सम्पूर्ण प्रतीयमान प्रपंच को पृथ्वीमात्र चिन्तन करो; घट, पट, गृह, उद्यान आदि सभी वस्तुओं को केवल पृथ्वी तत्त्व ही अनुभव करो। फिर इस पृथ्वी तत्त्व का जल तत्त्व में लय करो और सर्वत्र केवल जल तत्त्व को ही व्याप्त देखो। तत्पश्चात जल को अग्नि तत्त्व में लीन करो तथा सब पदार्थों को तेजोमय ही देखो। इसी प्रकार फिर उन्हें क्रमशः वायुरूप और आकाशरूप देखो। इस चिन्तन के बढ़ने के साथ क्रमशः गन्धादि विषयों की निवृत्ति होती जायगी। वृत्ति प्रायः तेज से आगे नहीं बढ़ती। वायु और आकाश रूपरहित पदार्थ हैं, इसलिये उन पर दृष्टि जमना बहुत कठिन है। यदि मन वायु तत्त्व में स्थित हो गया तो उसे अन्धकार और प्रकाश की भी प्रतीति नहीं होगी, क्योंकि ये दोनों तो तेज के अन्तर्गत हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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