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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
गोस्वामी जी ने भी कहा- “जिनहिं निरखि मग साँपिनि बीछी, तजहिं सहज विष तामस तीखी।” नागिनी पुत्रादिनी है- अपने बच्चों को भी खा जाती है- ‘पुत्रादिनी सर्पिणी’ इतनी क्रूर है, वह भी भगवद्भक्तों के सामने अपने स्वाभाविक विष को त्याग देती है। प्रकृति के समस्त अंग भागवत की सेवा करते हैं। “तस मग भयो न राम कहँ, जस भा भरतहिं जात।” पृथ्वी श्रीरामभद्र के चरणों के नीचे अपने कोमल हृदयकमल को बिछाती थी, परन्तु भरत के लिये वह इससे भी अधिक कोमल थी। अतः जहाँ वृन्दावन अपने अधीश्वर के लिये कोमल बनता है, वहाँ वह उनके प्रिय के लिये कोमल क्यों न होगा? पहले तो वहाँ कण्टक, शर्करा, कंकड़ हैं ही नहीं, वहाँ तो इन्द्र, नील, पद्मरागमणि आस्तीर्ण हैं। पर “...तं सप्रपंचमधिरूढ....।” “गाँठी तो बाँधे नहीं माँगतहू सकुचायँ, तिनके पीछे हरि रहें कहुँ भूखे नहिं रहि जायँ।” यों प्रकृति के अणु-अणु इन व्रजदेवियों की सेवा के लिये तत्पर हैं। स्वामी को प्रसन्न करने के लिये पहले स्वामिनी को प्रसन्न करना चाहिये। आज भी ‘वायसराय’ को प्रसन्न करने के लिये उनकी मेम हो हार पहनाया जाता है। वैसे ही श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने के लिये उनकी अन्तरंगा इन व्रजदेवियों का पहले प्रसाद प्राप्त करना चाहिये। प्रकृत में उनका चरित्रगान और उनकी लगन का अनुकरण ही उनके प्रसाद का हेतु है। अस्तु; इस तरह वे अपने मनमोहन को ढूँढ़ती फिर रही हैं। अश्वत्यादि में और भी कल्पना-अश्वत्थ विष्णु दैवत्व, प्लक्ष ब्रह्मदैवत्य और न्यग्रोध शिवदैवत्य हैं। अतः मानों व्रजांगना अपने प्राणधन को ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर से पूछती हैं। वे कहती हैं- ‘आप लोग साधु हैं, आपसे हम अपने चोर को पूछ रही हैं। दूसरे, आपकी शाखा-प्रशाखा दशों दिशा में फैल रही हैं- उन हमारे चितचोर को कहीं अवश्य देखा होगा।’ पिप्पल चलदल है, उसे चंचल देखकर व्रजांगना ने समझा- ‘यह हाथ हिला रहा है, कह रहा है- हमने तुम्हारे श्यामसुन्दर को नहीं देखा। ठीक है, इसे नेत्र नहीं है। चलो नेत्र वाले से पूछें (प्रकृष्टे अक्षिणी यस्य असौ प्लक्षः) इस प्लक्ष के बड़ी-बड़ी आँखें हैं, यह नेत्र वाला है। इसके जो अरुण पल्लव हैं- वे नेत्र हैं। यह ब्रह्मदैवत्य भी है। अच्छा, तो तुम्ही बताओ प्लक्ष! तुमने कहीं हमारे प्राण को देखा? अरे यह क्या, यह तो कुछ बोलता ही नहीं, क्या इसने मौनव्रत लिया है? पर नहीं, इसे वागिन्द्रिय नहीं है, बेचारा कैसे बोले। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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